Wednesday, February 20, 2013

नेटी घोड़ा*



मासूम फ़िल्म के गाने : "लकड़ी की काठीकाठी पे घोड़ाकी पैरोडीसभी नेटी घुड़सवारोंको समर्पित  


नेता का सिपाही
सिपाही का घोड़ा
नेताजी की पूँछ पे जो मारा हतौड़ा 
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा, नेट पे आके दौड़ा ..

घोड़ा था घमण्डी,
निकला वो पाखंडी।
मौका देखे ही लगाये, देशभक्ति की मंडी। 
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा, गंद मच के दौड़ा ..

घोड़ा अपना अकड़ा है,
राहुल-मोदी ने पकड़ा है।
रहता है ये यूएस मेंमंदिर-माजिद में जकड़ा है।  
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा, सिन्दूर उड़ा के दौड़ा ..

घोड़ा पहुँचा ट्विटर पे,
वहां था रवीश भाई।
घोड़ेजी की भाई ने, हजामत जो बनाई।
बांह छुड़ा के दौड़ा घोड़ा, दुम उठा के दौड़ा ...
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इस पैरोडी से आहत सभी गुलज़ार प्रेमियों से माफ़ी की उम्मीद।
*"नेटी घुड़सवार" शब्द की रचना, रविश जी द्वारा की गयी है

Tuesday, February 19, 2013

दिन लम्बे हो गए हैं आजकल ...


ये जो सूरज है,
घर देर से जा पाता है आजकल।
ये जो सूरज है,
सुना है कुछ ज़्यादा गरम रहता है आजकल ।।

Friday, February 15, 2013

जनहित में जारी सूचना

सर्वसाधारण को सूचित किया जाता है, कि कल रात स्वयं "माँ घोटालेश्वरी" ने तिहार जेल में दर्शन दिए हैं। माता ने आदेश दिया है, कि स्विट्ज़रलैंड की पहाड़ी पर उनका एक भव्य मंदिर बनाया जाय। भक्तजनों से अनुरोध है कि, खुले दिल और काले धन से, इस नेक कार्य में भरपूर सहयोग करें। निम्नांकित बातों पर ध्यान रखें :

$$ मंदिर निर्माण कमेटी की सदस्यता हेतु, आप पर कम से कम सीबीआई की एक चार्जशीत फाइल होनी आवश्यक है।

$$ इस मंदिर में सभी धर्म, जाती, प्रान्त के लोगों का स्वागत है। जिस भी अंशदाता ने, भ्रष्टाचार में सामाजिक पहलुओं को समझने की कोशिश की, उसे माँ के श्राप के परिणाम स्वरुप, जयपुर लिट् फेस्टिवल में मुख्य वक्ता घोषित कर दिया जायेगा।

$$ 50cr से ज्यादा दान देने वालों के लिए स्वयं मंदिर द्वारा, अर्नब गोस्वामी से रक्षा, प्रदान की जाएगी।

$$ जिन सज्जनों को गुप्त दान करना हो वे अपने पसंद के, दिल्ली में स्थित, किसी भी मीडिया हाउस के मुख्य दफ्तर में अपना अनाम पैकेट भिजवा दें। आप निश्चिन्त रहें, विशेष ट्रेनिंग प्राप्त अधिकृत मीडियाजन, गुप्त लिफाफों को हैंडल करने में दक्ष है। ध्यान रहे के फ़ोन पर इसकी चर्चा न करे। ऐसा करने पर आपकी गोपनीयता की ज़िम्मेदारी मंदिर समिति की नही होगी।

$$ मंदिर निर्माण के हर चरण में कमीशन लिया जायेगा। साथ ही, मंदिर प्रांगण में सदस्यों के बच्चों को घोटाला विद्या (मने MBA) की गहन और महंगी शिक्षा दी जाएगी।

$$ भ्रष्टाचार शोभा यात्रा :
  • संसद के मानसून सत्र को शीघ्र भंग करवा, दिल्ली से नेताओं का बड़ा जत्था, रथ यात्रा पर निकलेगा। रास्ते भर, छोटे-बड़े भ्रष्टाचारी इससे जुड़ते जायेंगे। यात्रा के दौरान भ्रष्टाचार की दबी आवाज़ों को विशेष मंच दिया जायेगा। उधाहरणतया - लोकल मीडिया - जिसे अन्यथा लुटियन और सोशल मीडिया की तुलना में, हमेशा सौतेला व्यवहार मिलता है , इस यात्रा का विशेष अंग होगी।*
  • यात्रा की समाप्ति दलाल स्ट्रीट पर, चिंतन अधिवेशन और "वाइब्रेंट करप्शन" नाम के उत्सव से होगी। यहाँ कॉर्पोरेट जगत के साथ-साथ - विशेष रूप से - सीऐगी रिपोर्ट में नाम सम्मंलित करवाने वाले और  अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घोटाला करनेवालों का विशेष सम्मान किया जायेगा। 
$$ किसी भी तरह के डिस्प्यूट की स्तिथि में, "स्विज़ बैंक कला धन " कमेटी का अंतिम फैसला ही मान्य होगा।

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सेवा में, 
घोटालेश्वरी मंदिर कमेटी - गर्व से कहो हम भ्रस्चाटाचारी हैं !
$$$ हम बने तुम बने , घोटाले के लिए!!! $$$
$$$  ॐ श्री श्री 420 जय माँ घोटालेश्वरी  $$$

* यात्रा की कवरेज के लिए, हमारे लोब्यिस्ट से संपर्क करे!
* खुद चोरी कर, धरना देने वाले ढोंगियों पर माता की कृपा नहीं होगी। 


Tuesday, February 12, 2013

रविवार, दोपहर और बस

रविवार की खाली दोपहर से ज्यादा मुझे कुछ अज़ीज़ नहीं। प्यारी होंगी और चीज़ें, और हैं भी .. पर इससे अज़ीज़  नहीं। रविवार की दोपहर, गाँव से शेहर को जोड़ते किसी हाईवे का, एक विशेष स्टॉप है। जैसे-जैसे आप इस हाईवे पर आगे चलते जाते हैं, गाँव के पीछे छूट जाने का ( यानि छुट्टी के दिनों के बीत जाने का ) एहसास बढ़ता जाता है। और शाम होते होते, बस पहुचने से पहले ही, मानसिक रूप से आप शहर (यानि ऑफिस के क्यूबिकल) में पहुँच जाते हैं। रविवार की दोपहर वो ख़ास समय है जब गाँव से दूरी इतनी होती है कि भले पीछे मुड़ने पर गाँव ना दिखे, पर रास्ते पर शहर से लौटते गाँव वाले ज़रूर दिख जायेंगे। और भले ही अभी तक बस से शहर ना दिख रहा हो, पर शहर से उठता गुबार ज़रूर नज़र आने लगता है।

ऐसी ही इस अलसाई दोपहर को, जब नींद भी कहीं आराम करने चली गयी है , कंप्यूटर को जगा देख में ये ब्लॉग लिख रहा हूँ । खिड़की से देखूं तो पूरा शहर सफेद कफन ओढ़े शांत पड़ा है। आप सोचेंगे कि बर्फ से लिपटे शहर को वर्णित करने के लिए ऐसा मनहूस या उदास रूपक क्यों ? कवियों, लेखकों ने तो इसमे रोमांच, रोमांस, कुल्फी, बर्फ की रजाई और न जाने क्या क्या ढूँढा है। पर अमूमन जो शहर रोज़ाना एक समय पर कई दौड़ों का रेसकोर्स बना रहता हो - गाड़ियों की ट्रैफिक लाइट से रेस, ठंडी रात में देखे सपनों का झुलसते दिन की सचाई से रेस - वो शहर जब एकदम से शांत दिखे तो आश्चर्य और दुःख तो होगा ही न!  

धीरे धीरे ये बर्फ का शहर अब शाम की व्हिस्की में घुल रहा है। ये अजीब बात है कि शहर की ऐसे मृत-तुल्य स्तिथि देखकर, मुझे अपने पुराने शहर की याद आ गयी। शायद ऐसी ही याद आता होगा, वृद्धजनों को उनका अतीत, जब ज़िन्दगी की शाम पास आती है।

वैसे हम विस्थापितों के लिए ये "अपना-शहर" का फ्रेज़ अक्सर एक क्रूर मजाक लगता है। किसी विस्थापित का हाल उड़ते, घर बदलते उन पंछियों के सामान है जिनके पास "अपना" कहने के लिए कुछ ठोस नहीं होता। हाँ, बोलने को आप किताबी स्टाइल में "ये आकाश हमारा है" या दार्शनिक अवस्था में "वसुधैव कुटुंबकं" का ऐलान ज़रूर कर सकते हैं।दरसरल  'अपने' शहर की इस तलाश के लिए हमें हर वक़्त एक यात्रा पर निकलना होता है - मनोवैज्ञानिक यात्रा - शहर से अपने गाँव, कसबे, टाउन की यात्रा।  अक्सर ये यात्रा पूरी वहीं होती है, जिस मुहाले में आपका बचपन गुज़रा हो। 

बचपन गुज़र जाता है, पर उसकी यादें नहीं। हम अपने दिमाग के कम्पार्टमेंट में, सहूलियत के अनुसार यादों का ऐसा शहर बसा लेते हैं, जो शायद कभी असलियत में था ही नहीं। और अगर था भी, तो उसके कई और रूप थे जो हम अपनी रचना में शामिल नहीं करते , या करना नहीं चाहते। हर जनरेशन के लोगों के लिए उनका एक "बेहतरीन युग" होता है। सोचने की बात है, कि अगर इन सब यादों को मिला लें, तो मानव इतिहास की इतनी स्वर्णिम तस्वीर बनेगी, कि दुनिया का सारा सोना ख़त्म हो जाय, पर चित्र पूरा न हो पायेगा। दुनिया के हर शख्स के ज़ेहन में आपको ऐसा चित्र मिल जायेगा। जब आपके पास वर्तमान की कमर तोड़ ज़रूरतों से भागकर - स्विट्ज़रलैंड, पेरिस, गोवा, जाने का समय और व्यवस्था ना हो - तो आप ऐसे ही किसी यादों के शहर में शरण लेने सकते हैं। 

हमारा मोहल्ला हमारे साथ ही बड़ा होता है। बचपन के किसी मित्र की तरह हमारी सारी शरारतों में बराबर शामिल भी होता है - इसकी आड़ी टेढ़ी गलियों के संग दौड़ लगाना, आपकी पतंग कट जाय तो अपने किसी माकन की छत पर उसे सहेज रखना और पानी की बड़ी टंकी के पीछे, नए मौसम के नए प्यार के फूलों को सीचते रहना। मेरा शहर मेरे ऐसे ही किसी दोस्त के सामान है जिससे स्कूल ख़त्म होने के बाद मैं कभी नहीं मिला। वो अपने रास्ते चल पड़ा और मैं अपने। सुना है इन बीते सालों में अपने लिए काफी अच्छा कर लिया है उसने। कल ही पता चला वहाँ जो सरकारी स्कूल और उससे ही लगे खेलकूद का मैदान था, उसे खाली करवा वहां अपने लिए एक आलीशान मल्टी-स्टोरी बनवा ली है -  "ओक्टाविया सोसाइटी " ( जिस कसबे में यूरोपियन नाम की "सोसाइटी" बन जाय, उसे शहर कहा जा सकता है )। यहीं से कुछ दूरी पर रहते थे वो लोग जो, एक समय इस मोहल्ले और उसके घरों की साफ़ सफाई , देख-रेख करते थे। हार्वर्ड से लाये ज्ञान के FDI , यानि  प्लानिंग कमीशन ने, जैसे ही वैधानिक और अवैधानिक का अंतर समझाया, आस-पास के कुछ मुहल्लों ने मिल कर वो ज़मीन खाली करवा दी .. आखिर गैरकानूनी काम कैसे जारी रखने देते इतने दिनों तक। उस जगह अब शहर का पहला आलीशान मॉल बना गया है ( जिस कसबे में मॉल खुल जाय उसे शहर कहा जा सकता है ). पिछले दिनों पास की एक छोटी बस्ती ने कथित भ्रष्टाचार की कुछ आवाज़ उठाई थी, पर कल ही वहां "शोर्ट -सर्किट" के कारन आग लगने की खबर आई। मुहल्लों के संगठन ने अफ़सोस जताया, और ऐसी बस्तियों के आधुनिकरण की अपनी मांग वापस दोहराई।

गगनचुम्बी विकास को निहारती निगाहों से अभी तक बचा हुआ है, ज़मीन पर बैठा एक छोटा-सा घर - जहाँ मैं बड़ा हुआ। रोचक बात है कि शुरुआत से ही (मोहल्ले से विपरीत) ये घर हेमशा मुझे खुद से बड़ा लगा। बचपन में बहुत गुस्सा आता था इसपर। पूरे समय मेरी चुगली जो कर देता माँ से। सुबह को छुपाया मेरा दूध का गिलास हो या दोस्तों के साथ शेयर करी सिगरेट की बट, मौका देखते ही घरवालों को सब ज़ाहिर कर देता .. वो भी सबूत समेत। घर वाले भी भरोसा करते थे इस पर। तभी वो जब भी कहीं जाते, हिदायत मिल जाती हमें - घर से बहार न निकलना । अंदर ही रहना। शायद उन्हें यकीं होगा कि किसी वफादार की तरह  इनके चले जाने के बाद भी ये घर हमेशा निगेहबान रहेगा । और रहा भी। खुद भीग कर मानसून में, अपने छत की टोटियों से हमें झरने का मज़ा दिलाता रहा। दंगाइयों ने जब ग़दर मचाना चाहा .. सीमा पर तैनात किसी जवान की तरह रक्षा की हमारी। पर अब ये जवान कुछ बूढ़ा हो चला है। जबसे इसे छोड़ा है, फिर कभी जाना नहीं हुआ मेरा। पर ऐसा नहीं की मुझे इसका ख्याल नहीं। विदेश से हर महीने कुछ पैसे भेज देता हूँ। डॉलर में। EMI समझ लीजिये इसे ..घर के लिए .. घरवालों के लिए।

लिखने को और मन था, पर अब मेरी बस शहर के पास आ गयी है। शहर में लगे बड़े -बड़े बिलबोर्ड और चौंधिया देने वाली हलोजन लाइट की गर्मी में , गाँव की याद वाष्पीकृत हो जाती है। कल सुबह ये मरने का स्वांग खत्म हो जायेगा, ये शहर फिर जाग उठेगा। काश मैं भी जाग सकता ऐसे ही।