कितनी ही आँखों में ये गोल-गोल, काली रातें तैरती रहती हैं । अपनी अपनी रातें सब ने पलकों में बचाई रखी हैं। सब चाँद को देखते रहते हैं और किसी आशिक की तरह, मौका पाते ही, सपने पलकों के गेट को फांद कर आँखों में चले आते हैं ।सपने भी तरह तरह के होते हैं, जैसे तरह तरह के आशिक होते हैं । कुछ ही सपने अपने होते हैं। कुछ सपने केवल सपने होते हैं । रात टपकती रहती है आसमान से । नींद भीगती रहती है इस बारिश में । डर भी लगा रहता है न जाने कब का बोया सपना आज फूट पड़े । कितनी ही बीती रातों को मिटा देने का मन करता है । कितने ही रातों में मिट जाने का मन करता है । पर कुछ मिटता नहीं । रात बस अपना काला रंग ऊँगलियों पर छोड़ कर फिर उड़ जाती है । रात में, सड़कों पर चलता शोर भी शहर का सपना है । कुछ जगमगाते, कुछ भुजे हुए। कुछ दूर से एक दुसरे को आवाज़ देते हुए । ध्यान से सुनो कभी क्या कहते हैं ये एक दुसरे से । कितनी भी खिड़कियाँ बंद कर लो, कहीं न कहीं से आवाज़ आती रहती है । न जाने अब की ये कौन सी खिड़की बंद कर दी, जो अपनी ही आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती । बस शोर ही नज़र आता है । रात का क्या है, कट ही जाएगी । करवटों के मोड़ से गुज़रती हुई, सुबह की चोटी पर पहुँच ही जाएगी । रास्ते में, कुछ सपनों में भीगना होगा । वो भी सुबह की हवा में सूख जाएँगे । पर कुछ सपनों की सीलन, दिन के आने पर भी लगी रह जाती है । कुछ बातें कहानी और कविता के बीच से निकल जाती हैं। कुछ रातें, नींद और सपनों के बीच टंगी रह जाती हैं ।
Sunday, July 21, 2013
Friday, July 19, 2013
छोटी मोटी नज्में - १
तिनका 
असमान में उड़ते पंछी से,
गिर गया था एक लम्हा कहीं।
तोड़ लाया था वो जिसे,
एक वक़्त की लरज़ती शाख़ से।
ऐसी ही उड़ती शामों को,
तनहा, छत पर उतरते देखा है।
ऐसे ही गिरते तिनकों को,
दामन में संभाले रखा है।
हर बार ये कोशिश करता हूँ,
इन तिनकों को मिलाकर मैं।
एक घोंसला फिर बना सकूँ,
जो टूट गया था आँधी में।
कुछ तिनके मगर हर बार,
फिर भी कम पड़ जाते हैं ।
कुछ तिनके जो उस बार,
तुम ले गयी थी संग अपने ।
ढलता सूरज
पेड़ की ऊँची सलाखों के पीछे,
एक रात का मुजरिम खड़ा है।
भाग रहा था जो दिन भर से,
उसे शाम को जाकर पकड़ा है।
जब पहरा देते चाँद को,
रात में झपकी सी लग जाएगी।
आस्मां से लटकती,
तारों की चाभी,
फिर इसके हाथ लग जाएगी।
वही चोर पुलिस का खेल,
कल फिर से खेला जाएगा।
पर आस्मां है ये धरती नहीं,
चोर फिरसे पकड़ा जायेगा।
इंतज़ार
एक शाम,
दफ्तर से लौटते हुए,
मिल गया वो मुझे।
दोराहे पर खड़ा,
तन्हा, बेमानी, बुझा-बुझा।
लगाए अपनी ठहरी निगाहों को,
उस पीछे को जाते रस्ते पर।
आँखों का सूनापन पोंछकर,
मुझे देखा और मेरा भार -
दफ्तर का सूटकेस,
ले लिया मेरे हाथों से।
फिर निकल पड़ा मेरे संग वो,
नीचे झुकाए अपने सर को -
(शायद कुछ खोज रहा था)
आज का दिन।
मेरे साथ मेरे घर को लौट चला।
साया
एक हल्की गर्म दोपहरी में,
एक तेज़ हवा के झोंके से।
गिर गई एक छाँव कोई,
उस शाख़ के तिरछे कोने से।
इससे पहले शायर कोई,
रख ले इसको नज्मों में।
पहना दूँ जाकर ये साया,
अपने हमसाए के क़दमों में।
असमान में उड़ते पंछी से,
गिर गया था एक लम्हा कहीं।
तोड़ लाया था वो जिसे,
एक वक़्त की लरज़ती शाख़ से।
ऐसी ही उड़ती शामों को,
तनहा, छत पर उतरते देखा है।
ऐसे ही गिरते तिनकों को,
दामन में संभाले रखा है।
हर बार ये कोशिश करता हूँ,
इन तिनकों को मिलाकर मैं।
एक घोंसला फिर बना सकूँ,
जो टूट गया था आँधी में।
कुछ तिनके मगर हर बार,
फिर भी कम पड़ जाते हैं ।
कुछ तिनके जो उस बार,
तुम ले गयी थी संग अपने ।
ढलता सूरज
पेड़ की ऊँची सलाखों के पीछे,
एक रात का मुजरिम खड़ा है।
भाग रहा था जो दिन भर से,
उसे शाम को जाकर पकड़ा है।
जब पहरा देते चाँद को,
रात में झपकी सी लग जाएगी।
आस्मां से लटकती,
तारों की चाभी,
फिर इसके हाथ लग जाएगी।
वही चोर पुलिस का खेल,
कल फिर से खेला जाएगा।
पर आस्मां है ये धरती नहीं,
चोर फिरसे पकड़ा जायेगा।
इंतज़ार
एक शाम,
दफ्तर से लौटते हुए,
मिल गया वो मुझे।
दोराहे पर खड़ा,
तन्हा, बेमानी, बुझा-बुझा।
लगाए अपनी ठहरी निगाहों को,
उस पीछे को जाते रस्ते पर।
आँखों का सूनापन पोंछकर,
मुझे देखा और मेरा भार -
दफ्तर का सूटकेस,
ले लिया मेरे हाथों से।
फिर निकल पड़ा मेरे संग वो,
नीचे झुकाए अपने सर को -
(शायद कुछ खोज रहा था)
आज का दिन।
मेरे साथ मेरे घर को लौट चला।
साया
एक हल्की गर्म दोपहरी में,
एक तेज़ हवा के झोंके से।
गिर गई एक छाँव कोई,
उस शाख़ के तिरछे कोने से।
इससे पहले शायर कोई,
रख ले इसको नज्मों में।
पहना दूँ जाकर ये साया,
अपने हमसाए के क़दमों में।
Sunday, July 14, 2013
बिना मीटर की ग़ज़ल - ४
महफ़िल में तेरी बात यूँही चलती रही रातभर,
बहुत संभाले रखा था यादों को तुम्हारी हमने,
क्या हुआ कि आखों से वो, गिरती रही रातभर ।३।
एक शेर में जो ज़िक्र आ गया उनका कभी,
पूरी ग़ज़ल ही हमारी, महकती रही रातभर ।४।
जा-जा के तेरी याद यूँही रूकती रही रातभर ।१। 
हमबिस्तर हो गए हैं जो कुछ सपने तुम्हारे,
ठंडी सफ़ेद चादर भी, जलती रही रातभर ।२।
हमबिस्तर हो गए हैं जो कुछ सपने तुम्हारे,
ठंडी सफ़ेद चादर भी, जलती रही रातभर ।२।
बहुत संभाले रखा था यादों को तुम्हारी हमने,
क्या हुआ कि आखों से वो, गिरती रही रातभर ।३।
एक शेर में जो ज़िक्र आ गया उनका कभी,
पूरी ग़ज़ल ही हमारी, महकती रही रातभर ।४।
कितने सपने बिठाए रखे हैं पलकों पर तुमने,
जो हर बार उठ-उठ कर, झुकती रही रातभर ।५।  
बड़े चैन से सोए थे हम तगाफुल में तेरे,
फिर इक सितम की चाह हमें, चुभती रही रातभर ।६। 
चाँदनी की ठंडक टूटते तारों से पूछो,
जो एक-एक कर शमा को, भुझाती रही रातभर ।७। 
Wednesday, July 10, 2013
खामोशियाँ
जीवन में कुछ भी ओरिजिनल या मौलिक न करने की अपनी भीष्म प्रतिज्ञा (ये फ्रेज़ भी मौलिक नहीं है) को जारी रखते हुए, इस बार का ये नया पोस्ट। 
फिल्म लुटेरा का गीत "मनमर्जियां" बहुत भा गया है। तो सोचा इसको कुछ और अपना बना लिया जाए। एक प्रयोग किया है । इस गाने की धुन पर अपने शब्द रखने की कोशिश की है। कैसा लिख पाया हूँ ये तो पता नहीं, पर एक बात तय है। अब से यूँ ही हर किसी नए गीत को सुनकर उसके गीतकार को गाली देना अब कम हो जाएगा। धुन पर लिखने में हालत ख़राब हो गई। उसके बाद भी कुछ ख़ास नतीजा नहीं निकला। बहरहाल, अब भूमिका बाँधने की इस महान परंपरा का अंत यहीं होता है। नीचे ओरिजिनल गाने का लिंक दिया है। एक बार यूँही पढ़ लेने के बाद, अपनी बुलंद आवाज़ में इस सस्ती रचना को साथ में गायें। कोई रॉयल्टी फ़ीस चार्ज नहीं की जाएगी। आस-पास वाली वालों की गेरेंटी अपनी नहीं। ट्राई एट योर ओन रिस्क।
ओरिजिनल गीत: मनमर्जियां (http://www.youtube.com/watch?v=QqSrWi2GqQA)
(धुन,आदि का क्रडिट मौलिक रचनाकारों का है। No Copyright infringement intended )
------------------------------
डुप्लीकेट माल: खामोशियाँ
बातों की ये धड़कन, कैसे सुने?
पूछा कई दफ़ा, उसने।
आखों का ये दर्पण, क्या कह गया?
क्या कभी गौर किया, उसने?
दिल ही दिल में
बात करती
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
हलकी बातें
पर है भारी
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
उम्र भर की
फिल्म लुटेरा का गीत "मनमर्जियां" बहुत भा गया है। तो सोचा इसको कुछ और अपना बना लिया जाए। एक प्रयोग किया है । इस गाने की धुन पर अपने शब्द रखने की कोशिश की है। कैसा लिख पाया हूँ ये तो पता नहीं, पर एक बात तय है। अब से यूँ ही हर किसी नए गीत को सुनकर उसके गीतकार को गाली देना अब कम हो जाएगा। धुन पर लिखने में हालत ख़राब हो गई। उसके बाद भी कुछ ख़ास नतीजा नहीं निकला। बहरहाल, अब भूमिका बाँधने की इस महान परंपरा का अंत यहीं होता है। नीचे ओरिजिनल गाने का लिंक दिया है। एक बार यूँही पढ़ लेने के बाद, अपनी बुलंद आवाज़ में इस सस्ती रचना को साथ में गायें। कोई रॉयल्टी फ़ीस चार्ज नहीं की जाएगी। आस-पास वाली वालों की गेरेंटी अपनी नहीं। ट्राई एट योर ओन रिस्क।
ओरिजिनल गीत: मनमर्जियां (http://www.youtube.com/watch?v=QqSrWi2GqQA)
(धुन,आदि का क्रडिट मौलिक रचनाकारों का है। No Copyright infringement intended )
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डुप्लीकेट माल: खामोशियाँ
बातों की ये धड़कन, कैसे सुने?
पूछा कई दफ़ा, उसने।
आखों का ये दर्पण, क्या कह गया?
क्या कभी गौर किया, उसने?
दिल ही दिल में
बात करती
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
लफ्ज़ ख़र्चे
और पायीं
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
राज़ अपने
राज़ अपने
ख़ुद बताती
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।हलकी बातें
पर है भारी
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
उम्र भर की
है कहानी
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
ख़त में लिपटी
मुस्कुराती
मुस्कुराती
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
साँसों में थी
जा के उलझी,
जा के उलझी,
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
ख्वाब बोया
ख्वाब बोया
और उगा ली
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
आखों में थी
यूँ सजाई
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
आखों में थी
यूँ सजाई
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
Friday, July 5, 2013
कौन लुटा आखिर ?
कुछ दिनों पहले फिल्म लुटेरा देखी। हाल-फिलहाल में ऐसी कई फिल्म देखीं हैं, जिनपर कुछ कहने या लिखने का मन कर रहा था। पर कभी लिखा नहीं। इस बार पहली कोशिश की है, एक फ़िल्म को ख़ास पहलू से देखने की। पर आगे कुछ पढ़ने से पहले जनहित में जारी ये सूचना ज़रूर पढ़ लें - मैं कोई फ़िल्म समीक्ष नहीं हूँ। मूवी को फर्स्ट हाफ, इंटरवल, सेकंड हाफ आदि हिस्सों में चीर फाड़कर, उसकी विवेचना/अध्यन करना नहीं आता। और ना ही ये करना चाहता हूँ। फिल्म देखकर जो कुछ महसूस हुआ बस वो बाटने का प्रयास किया है। फ़िल्म समीक्षा के फिक्स्ड कम्पार्टमेंट - पटकथा, निर्दशन, अभिनय, आदि में सफ़र कुछ उबाऊ सा हो जाता है। वैसे भी इन सबके बारे में, और लोग ज्यादा अच्छा बता पाएंगे।
लुटेरा देखे २ दिन के ऊपर हो गए हैं। इसमें अच्छी बात ये है कि फ़िल्म देखने के नियर-टर्म इफ़ेक्ट- जैसे ज़हन में गूँजते मूवी के सीन/गाने - अब कम हो चुके हैं। पर नुकसान भी है कि कुछ बातें अधूरी रह जाएँगी। खैर, ये फिल्म देश की आज़ादी के कुछ ही वर्षों बाद के समय में सेट है और इसकी शुरूआत होती है बंगाल के एक गाँव में मनाई जा रही रामलीला के एक सीन से। आप ५-१० मिं में समझ जाते हैं कि कहानी की पृष्ठभूमि कैसी है। ज़मींदार बाबू कुरसी पर बैठे हैं। मुनीमजी को चिंता है कि सरकार ज़मींदारी बर्खास्त करने वाली है। पर ज़मींदार साहब का भरोसा नवोदित भारत सरकार से ज्यादा उनकी छड़ी के सहारे टिके इतिहास पर है। इन सबके बीच आपकी नज़र बेफिक्री से रामलीला का आनंद उठाती पाखी (सोनाक्षी) पर जाती है। इससे पहले की पाखी खांसना शुरू करें, आपको कुछ कुछ आराम आने लगता है। किसी जानी-अनजानी, सुकून की दुनिया की ओर बढ़ने लगते हैं। सन-१९५०, हवेली, ज़मींदार, बंगाल, पुरातत्व विभाग से आया नायक। कुछ-कुछ देखा हुआ सा लगता है। साहिब बीवी और ग़ुलाम। कुछ पुरानी स्मृतियाँ आपकी बगल वाली कुर्सी पर आकार बैठ जाती हैं। और फिल्म भर, ये समय-समय पर आपको कोहनी मारती रहती हैं। लगता है यादों के म्यूजियम में बैठे हों। वही पुराना रेडियो। उसमें से बहती गीता दत्त की मदभरी आवाज़। पोखरे में डूबती शाम। गीली स्याही वाला फाउन्टन पैन।
फिल्म देखते समय लगता है, कि जब अधेड़ उम्र में आप कोई लघु कथा पढ़ रहे थे तो कोई चोरी से आपके ज़हन में बनती-बिगड़ती तस्वीरों को रिकॉर्ड कर रहा था। और आज उसे स्क्रीन पर ज़माने के सामने, धक् से प्रोजेक्ट कर दिया। फ़िल्म के अधिकतर समय, किसी भी सीन में २ या ३ से ज्यादा लोग नहीं दिखते। पर स्क्रीन पर भीड़ की कमी महसूस नहीं होती, अपितु सुकून देती है। कभी-कभी लगता है स्टेज पर कोई नाटक चल रहा है।
पर सवाल ये है कि अगर लूटेरा की कहानी आज के किसी महानगर में बसी होती, तो क्या ये फिल्म मुझे इतनी ही अच्छी लगती, जितनी अभी भाई है ? फिल्म में जो नायक-नायिका के बीच अनकहे पल हैं, क्या उन्हें ज़ाहिर कर देने पर संवाद और ज्यादा समझ आते? सोशल नेटवर्क पर देश के भविष्य से लेकर पापड़ और आचार की बातें चीख चीखकर करने के आज के ज़माने में, मूवी की खामोशियाँ हमारे किस खालीपन को भरती हैं? ज़मींदारी छिनती देख दिमाग में हामी, पर दिल में हलकी सी टीस क्यों उठती है?
फ़िल्म मूलतः प्रेम, मिलन, विरह जैसे कालजयी भावनाओं पर टिकी है। पर इनसे जुड़ा कुछ तो है जो काल, विकास, उदारीकरण की भेंट चढ़ चुका है। मुझे गलत न समझें। मैं कोई "गोल्डन-ऐज-सिंड्रोम" से पीड़ित नहीं हूँ।
ज़मींदारों ने अपनी हवेलियाँ, कैसे किसानों और मजदूरों की कब्र पर खड़ी की है जनता हूँ। धोखाधड़ी कोई सन-९० की देंन नहीं है। पर बात यहाँ उस चिट्ठी की है जो अब कोई लिखता नहीं। उन इशारों की है जिनकी लिपी अब लुप्त होती जा रही है। उन फुर्सत के लम्हों की है जो अब लोकल ट्रेन और डीटीसी की बस में चार हाथों से दबोच लिए जाते हैं। सब कुछ ट्विटर और फेसबुक पर जग ज़ाहिर है। सारी भावनाएँ  सोशल हो गयी हैं। गाँव में नाऊ का काम अब इन्टरनेट कर रहा है। 
फिल्म की कहानी एक फेरी टेल जैसी है। इसलिए ये किसी भी युग में एक टेल - यानि कहानी ही रहेगी। पर बहुत कुछ है जो कभी था और अब छूट गया है। हो सकता है अच्छे के लिए। शहर में मर रही शुद्ध हवा की तरह, कम होते इन्हीं ज़ज्बातों पर पूरी मूवी टिकी है। कही न कहीं उसे भुनाती भी है। शायद सच्चाई तो यह है कि सिनेमा हाल में घुसने से पहली ही हम लुटे हुए हैं। एक ले-दे कर nostalgia (विषाद) बचा है, जो फिल्म देखते समय किसी घाव से निकलते मवाद के सामान बहता रहता है। पूरी फिल्म में उसी nostalgia को खूबसूरती से परोसा है। जिसका स्वाद फिल्म देखने के बाद भी बना रहता हैं। खुशबू सिनेमा हाल के दूर तलक आती रहती है।
फ़िल्म में सोनाक्षी एक निर्भय अभिनेत्री के रूप में संवर कर आती है। अपनी बड़ी-बड़ी आखों में प्यार, longing , लालसा, गुस्सा सब समेटे हुए। फ़िल्म का म्यूजिक भी समा बाँधने में मदद करता है। बाकी लोगों का काम (अभिनय, (खासतौर से) कैमरावर्क) पसंद आया।  
"लुटेरा" में आखिर कौन लुटा-नायक, नायिका, या कोई और? किसने धोखा दिया? फिल्म देखकर अपना फ़ैसला कीजिए। फिल्म में कई खामियां हैं। कुछ अधूरापन भी है। हमारे-आपके जीवन की तरह। किसी कविता में उसके भाव- पंक्तियों की बीच कहीं छुपे होते हैं। यहाँ पर तो कई जगह से शब्द ही गायब हैं। भाव छुपे हैं - स्क्रीन पर रची गयी इस पेंटिंग के हलके गहरे रंग में। पाखी के आती-जाती साँस के सन्नाटों में। और आपके-हमारे भीतर छुपे हुए शोर में।
पोस्ट-स्क्रिप्ट: समय मिले, और हो सके तो थिएटर में ये मूवी देखकर आइयेगा। मूवी धैर्य मांगती हैं। पसंद सबकी अलग हो सकती है।पर हिंदी सिनेमा के इस बदलते दौर में, ऐसी फिल्मों को जनता का समर्थन ज़रूरी है।
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