कुछ दिनों पहले फिल्म लुटेरा देखी। हाल-फिलहाल में ऐसी कई फिल्म देखीं हैं, जिनपर कुछ कहने या लिखने का मन कर रहा था। पर कभी लिखा नहीं। इस बार पहली कोशिश की है, एक फ़िल्म को ख़ास पहलू से देखने की। पर आगे कुछ पढ़ने से पहले जनहित में जारी ये सूचना ज़रूर पढ़ लें - मैं कोई फ़िल्म समीक्ष नहीं हूँ। मूवी को फर्स्ट हाफ, इंटरवल, सेकंड हाफ आदि हिस्सों में चीर फाड़कर, उसकी विवेचना/अध्यन करना नहीं आता। और ना ही ये करना चाहता हूँ। फिल्म देखकर जो कुछ महसूस हुआ बस वो बाटने का प्रयास किया है। फ़िल्म समीक्षा के फिक्स्ड कम्पार्टमेंट - पटकथा, निर्दशन, अभिनय, आदि में सफ़र कुछ उबाऊ सा हो जाता है। वैसे भी इन सबके बारे में, और लोग ज्यादा अच्छा बता पाएंगे।
लुटेरा देखे २ दिन के ऊपर हो गए हैं। इसमें अच्छी बात ये है कि फ़िल्म देखने के नियर-टर्म इफ़ेक्ट- जैसे ज़हन में गूँजते मूवी के सीन/गाने - अब कम हो चुके हैं। पर नुकसान भी है कि कुछ बातें अधूरी रह जाएँगी। खैर, ये फिल्म देश की आज़ादी के कुछ ही वर्षों बाद के समय में सेट है और इसकी शुरूआत होती है बंगाल के एक गाँव में मनाई जा रही रामलीला के एक सीन से। आप ५-१० मिं में समझ जाते हैं कि कहानी की पृष्ठभूमि कैसी है। ज़मींदार बाबू कुरसी पर बैठे हैं। मुनीमजी को चिंता है कि सरकार ज़मींदारी बर्खास्त करने वाली है। पर ज़मींदार साहब का भरोसा नवोदित भारत सरकार से ज्यादा उनकी छड़ी के सहारे टिके इतिहास पर है। इन सबके बीच आपकी नज़र बेफिक्री से रामलीला का आनंद उठाती पाखी (सोनाक्षी) पर जाती है। इससे पहले की पाखी खांसना शुरू करें, आपको कुछ कुछ आराम आने लगता है। किसी जानी-अनजानी, सुकून की दुनिया की ओर बढ़ने लगते हैं। सन-१९५०, हवेली, ज़मींदार, बंगाल, पुरातत्व विभाग से आया नायक। कुछ-कुछ देखा हुआ सा लगता है। साहिब बीवी और ग़ुलाम। कुछ पुरानी स्मृतियाँ आपकी बगल वाली कुर्सी पर आकार बैठ जाती हैं। और फिल्म भर, ये समय-समय पर आपको कोहनी मारती रहती हैं। लगता है यादों के म्यूजियम में बैठे हों। वही पुराना रेडियो। उसमें से बहती गीता दत्त की मदभरी आवाज़। पोखरे में डूबती शाम। गीली स्याही वाला फाउन्टन पैन।
फिल्म देखते समय लगता है, कि जब अधेड़ उम्र में आप कोई लघु कथा पढ़ रहे थे तो कोई चोरी से आपके ज़हन में बनती-बिगड़ती तस्वीरों को रिकॉर्ड कर रहा था। और आज उसे स्क्रीन पर ज़माने के सामने, धक् से प्रोजेक्ट कर दिया। फ़िल्म के अधिकतर समय, किसी भी सीन में २ या ३ से ज्यादा लोग नहीं दिखते। पर स्क्रीन पर भीड़ की कमी महसूस नहीं होती, अपितु सुकून देती है। कभी-कभी लगता है स्टेज पर कोई नाटक चल रहा है।
पर सवाल ये है कि अगर लूटेरा की कहानी आज के किसी महानगर में बसी होती, तो क्या ये फिल्म मुझे इतनी ही अच्छी लगती, जितनी अभी भाई है ? फिल्म में जो नायक-नायिका के बीच अनकहे पल हैं, क्या उन्हें ज़ाहिर कर देने पर संवाद और ज्यादा समझ आते? सोशल नेटवर्क पर देश के भविष्य से लेकर पापड़ और आचार की बातें चीख चीखकर करने के आज के ज़माने में, मूवी की खामोशियाँ हमारे किस खालीपन को भरती हैं? ज़मींदारी छिनती देख दिमाग में हामी, पर दिल में हलकी सी टीस क्यों उठती है?
फ़िल्म मूलतः प्रेम, मिलन, विरह जैसे कालजयी भावनाओं पर टिकी है। पर इनसे जुड़ा कुछ तो है जो काल, विकास, उदारीकरण की भेंट चढ़ चुका है। मुझे गलत न समझें। मैं कोई "गोल्डन-ऐज-सिंड्रोम" से पीड़ित नहीं हूँ।
ज़मींदारों ने अपनी हवेलियाँ, कैसे किसानों और मजदूरों की कब्र पर खड़ी की है जनता हूँ। धोखाधड़ी कोई सन-९० की देंन नहीं है। पर बात यहाँ उस चिट्ठी की है जो अब कोई लिखता नहीं। उन इशारों की है जिनकी लिपी अब लुप्त होती जा रही है। उन फुर्सत के लम्हों की है जो अब लोकल ट्रेन और डीटीसी की बस में चार हाथों से दबोच लिए जाते हैं। सब कुछ ट्विटर और फेसबुक पर जग ज़ाहिर है। सारी भावनाएँ  सोशल हो गयी हैं। गाँव में नाऊ का काम अब इन्टरनेट कर रहा है। 
फिल्म की कहानी एक फेरी टेल जैसी है। इसलिए ये किसी भी युग में एक टेल - यानि कहानी ही रहेगी। पर बहुत कुछ है जो कभी था और अब छूट गया है। हो सकता है अच्छे के लिए। शहर में मर रही शुद्ध हवा की तरह, कम होते इन्हीं ज़ज्बातों पर पूरी मूवी टिकी है। कही न कहीं उसे भुनाती भी है। शायद सच्चाई तो यह है कि सिनेमा हाल में घुसने से पहली ही हम लुटे हुए हैं। एक ले-दे कर nostalgia (विषाद) बचा है, जो फिल्म देखते समय किसी घाव से निकलते मवाद के सामान बहता रहता है। पूरी फिल्म में उसी nostalgia को खूबसूरती से परोसा है। जिसका स्वाद फिल्म देखने के बाद भी बना रहता हैं। खुशबू सिनेमा हाल के दूर तलक आती रहती है।
फ़िल्म में सोनाक्षी एक निर्भय अभिनेत्री के रूप में संवर कर आती है। अपनी बड़ी-बड़ी आखों में प्यार, longing , लालसा, गुस्सा सब समेटे हुए। फ़िल्म का म्यूजिक भी समा बाँधने में मदद करता है। बाकी लोगों का काम (अभिनय, (खासतौर से) कैमरावर्क) पसंद आया।  
"लुटेरा" में आखिर कौन लुटा-नायक, नायिका, या कोई और? किसने धोखा दिया? फिल्म देखकर अपना फ़ैसला कीजिए। फिल्म में कई खामियां हैं। कुछ अधूरापन भी है। हमारे-आपके जीवन की तरह। किसी कविता में उसके भाव- पंक्तियों की बीच कहीं छुपे होते हैं। यहाँ पर तो कई जगह से शब्द ही गायब हैं। भाव छुपे हैं - स्क्रीन पर रची गयी इस पेंटिंग के हलके गहरे रंग में। पाखी के आती-जाती साँस के सन्नाटों में। और आपके-हमारे भीतर छुपे हुए शोर में।
पोस्ट-स्क्रिप्ट: समय मिले, और हो सके तो थिएटर में ये मूवी देखकर आइयेगा। मूवी धैर्य मांगती हैं। पसंद सबकी अलग हो सकती है।पर हिंदी सिनेमा के इस बदलते दौर में, ऐसी फिल्मों को जनता का समर्थन ज़रूरी है।
 
ज़मींदारी छिनती देख दिमाग में हामी, पर दिल में हलकी सी टीस क्यों उठती है?
ReplyDeleteएक व्यवस्था थी लम्बे समय सुचारू रूप से चली कुछ अच्छा भी कई बुराइयों के साथ जुड़ा था जिसने मानव जीवन बांधे रखा। बुराइयों से घृणा के बावजूद घृणा कम थी क्योंकि अधिकांश बुराइयाँ मानवीय थीं अनैतिक थीं राजनैतिक नहीं