Sunday, December 22, 2013

छोटी मोटी नज़्में - ४

एक शाम .... 

यूँ बर्फ़ पर पसरी हुई,
ये शाम कुछ नीली पड़ी ।
हवा चली जो ज़ोर से,
ज़रा सी फिर सिहर उठी ।
बेजान सूखे पेड़ों की,
तेज़ शाखों से गुज़र के ।
खरोंच लगाती शाम चली,
यूँ उठ के मेरे दरीचे से ।
फिर सामने सड़क पार वाले,
बस स्टॉप के नीचे ।
सिमटी हुई खड़ी रही, शाम
फुटपाथ से थोड़े पीछे  ।
अब लैम्प पोस्ट की गर्मी में,
कुछ कुछ पिघलती जाती है ।
जैसे प्रेम की प्यासी बिरहन, 
दो बाहों में डूबती जाती है । 
यूँही और लिपटी रही तो,
ये शाम भी सुलग जाएगी । 
जाते-जाते अपने पीछे,
रात का, काला निशां छोड़ जाएगी ।

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सुबह का रंग 

नींद तले, सपनों के,
काफ़िले मिलते है जहाँ ।
रात गुज़रती है, यादों के,
टुकड़ों पर से वहाँ ।
यूँ ज़ख़्मी क़दमों से चलकर,
लड़ख़ड़ा के गुज़र जाती है ।
ये रात रोज़ कुछ इस तरह , 
सुबह को लाल कर जाती है ।

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बस यूँहीं ....

क़दम रुकते नहीं,
एक राह निकल पड़ती है।
साँस थमते ही,
एक आह निकल पड़ती है ।
जुस्तजूँ के जुगनू,
जगमाते हैं रातों में ।
यादों के पतंगे,
फड़फड़ाते बरसातों में ।
सड़क पर चलती आवाज़,
दिल से गुज़र जाती है ।
आँखों से निकलकर बात,
शहर में खो जाती है ।
खाली पड़ा ये दिन,
दोपहर सा बजता है ।
कहानी बिना किरदार कहीं,
पन्नों में भटकता है ।
दिन की थकन, रातों की,
करवटों में बांटने के लिए ।
घड़ी की सुइयाँ चलती है बस,
धड़कने गिनाने के लिए ।
अपने ही मोम तले कभी,
जैसे शमा डूब जाती है ।
रात भी अपने आस्मां तले,
कभी झुककर टूट जाती है ।
दिन के खालीपन से,
नीदें भरा करती हैं ।
सीने की ठंडी आहों से,
रातें जला करती हैं ।
हर दिल, हर दिन,
कितनी साँसे जीता है । 
सुना है इस शहर में,
कोई मुझसा रहता है।  

Thursday, December 5, 2013

मन

बस यूँहीं ....

कितनी परतें छिली हैं,
कितनी रूहें छानी हैं,
एक अकेले मन की ही,
ये कैसी मनमानी है ?

कितनी सासें झुलसी हैं,
कितनी प्यास जगाई है,
एक सुलगते मन ने ही,
कितनी रात जलाई है ।

कतरा कतरा किस्सों ने,
कतरा कतरा काटा है,
शोर मचाते इस मन में,
धड़कन का सन्नाटा है ।

भँवर बना के लम्हों के,
जाल बिछा के रिश्तों के,
कौन कहाँ हिसाब करे,
मन में मन के हिस्सों के । 

सीधे मन की उलझन में, 
जागे मन की करवट में, 
मन ही मन की बातों में,
मन की बिखरी यादों में,
एक मन बचा के रखना तुम,
मन के इन गलियारों में ।

Wednesday, December 4, 2013

बिना मीटर ग़ज़ल - ५

सफ़र जुदा होने पर, साथ छुट जाएँगे क्या ?
रास्ते मिलने पर, दिल भी मिल जाएँगे क्या ?

मौसमों के शहर में, कुछ महीने दूरी सही ।
बर्फ़ पिघलने पे, फ़ासले भी गल जाएँगे क्या ?

इस सियासी मामूरे में, इंतखाबी बाज़ार हैं । 
वो खरीदते खरीदते, खुद बिक जाएँगे क्या ?

दीने नासेह ने यहाँ, अहले-खुदाई छाप दी ।
ज़रा उनसे पूछो, ख़त एक लिख पाएँगे क्या ?

ज़ख्म भरता ही नहीं, एक बेचारे सवाल से ।
जो भर गए नासूर सब, तो वो सहलाएँगे क्या ?

सालों सागर में रखी, मय और नशीली होगी
तमाम उम्र जुस्तजू रखी, आप संभल पाएँगे क्या ?

रात लम्बी ही सही, इस जागते से ख्वाब में ।
एक बार आँख खुल गई, फिर सो पाएँगे क्या ?

चाचा ग़ालिब से माफ़ी माँगते हुए )
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१- नगर 
२- चुनावी
३- उपदेशक 
४- शराब कि बोतल