Thursday, December 5, 2013

मन

बस यूँहीं ....

कितनी परतें छिली हैं,
कितनी रूहें छानी हैं,
एक अकेले मन की ही,
ये कैसी मनमानी है ?

कितनी सासें झुलसी हैं,
कितनी प्यास जगाई है,
एक सुलगते मन ने ही,
कितनी रात जलाई है ।

कतरा कतरा किस्सों ने,
कतरा कतरा काटा है,
शोर मचाते इस मन में,
धड़कन का सन्नाटा है ।

भँवर बना के लम्हों के,
जाल बिछा के रिश्तों के,
कौन कहाँ हिसाब करे,
मन में मन के हिस्सों के । 

सीधे मन की उलझन में, 
जागे मन की करवट में, 
मन ही मन की बातों में,
मन की बिखरी यादों में,
एक मन बचा के रखना तुम,
मन के इन गलियारों में ।

3 comments:

  1. यह सच में बहुत अच्छी लिखी है आपने ...............भावनाओं और ठहराव का अनूठा संगम ............अति सुंदर

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  2. अचूक...वहां से चली, यहाँ लग गयी ।
    पैनी हो गयी अब कलम आपकी ।
    सुपर ।

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  3. कतरा कतरा किस्सों ने,
    कतरा कतरा काटा है,
    शोर मचाते इस मन में,
    धड़कन का सन्नाटा है ।
    ==
    Behtreen...

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