रविवार की खाली दोपहर से ज्यादा मुझे कुछ अज़ीज़ नहीं। प्यारी होंगी और चीज़ें, और हैं भी .. पर इससे अज़ीज़  नहीं। रविवार की दोपहर, गाँव से शेहर को जोड़ते किसी हाईवे का, एक विशेष स्टॉप है। जैसे-जैसे आप इस हाईवे पर आगे चलते जाते हैं, गाँव के पीछे छूट जाने का ( यानि छुट्टी के दिनों के बीत जाने का ) एहसास बढ़ता जाता है। और शाम होते होते, बस पहुचने से पहले ही, मानसिक रूप से आप शहर (यानि ऑफिस के क्यूबिकल) में पहुँच जाते हैं। रविवार की दोपहर वो ख़ास समय है जब गाँव से दूरी इतनी होती है कि भले पीछे मुड़ने पर गाँव ना दिखे, पर रास्ते पर शहर से लौटते गाँव वाले ज़रूर दिख जायेंगे। और भले ही अभी तक बस से शहर ना दिख रहा हो, पर शहर से उठता गुबार ज़रूर नज़र आने लगता है।
ऐसी ही इस अलसाई दोपहर को, जब नींद भी कहीं आराम करने चली गयी है , कंप्यूटर को जगा देख में ये ब्लॉग लिख रहा हूँ । खिड़की से देखूं तो पूरा शहर सफेद कफन ओढ़े शांत पड़ा है। आप सोचेंगे कि बर्फ से लिपटे शहर को वर्णित करने के लिए ऐसा मनहूस या उदास रूपक क्यों ? कवियों, लेखकों ने तो इसमे रोमांच, रोमांस, कुल्फी, बर्फ की रजाई और न जाने क्या क्या ढूँढा है। पर अमूमन जो शहर रोज़ाना एक समय पर कई दौड़ों का रेसकोर्स बना रहता हो - गाड़ियों की ट्रैफिक लाइट से रेस, ठंडी रात में देखे सपनों का झुलसते दिन की सचाई से रेस - वो शहर जब एकदम से शांत दिखे तो आश्चर्य और दुःख तो होगा ही न!  
धीरे धीरे ये बर्फ का शहर अब शाम की व्हिस्की में घुल रहा है। ये अजीब बात है कि शहर की ऐसे मृत-तुल्य स्तिथि देखकर, मुझे अपने पुराने शहर की याद आ गयी। शायद ऐसी ही याद आता होगा, वृद्धजनों को उनका अतीत, जब ज़िन्दगी की शाम पास आती है।
वैसे हम विस्थापितों के लिए ये "अपना-शहर" का फ्रेज़ अक्सर एक क्रूर मजाक लगता है। किसी विस्थापित का हाल उड़ते, घर बदलते उन पंछियों के सामान है जिनके पास "अपना" कहने के लिए कुछ ठोस नहीं होता। हाँ, बोलने को आप किताबी स्टाइल में "ये आकाश हमारा है" या दार्शनिक अवस्था में "वसुधैव कुटुंबकं" का ऐलान ज़रूर कर सकते हैं।दरसरल  'अपने' शहर की इस तलाश के लिए हमें हर वक़्त एक यात्रा पर निकलना होता है - मनोवैज्ञानिक यात्रा - शहर से अपने गाँव, कसबे, टाउन की यात्रा।  अक्सर ये यात्रा पूरी वहीं होती है, जिस मुहाले में आपका बचपन गुज़रा हो। 
बचपन गुज़र जाता है, पर उसकी यादें नहीं। हम अपने दिमाग के कम्पार्टमेंट में, सहूलियत के अनुसार यादों का ऐसा शहर बसा लेते हैं, जो शायद कभी असलियत में था ही नहीं। और अगर था भी, तो उसके कई और रूप थे जो हम अपनी रचना में शामिल नहीं करते , या करना नहीं चाहते। हर जनरेशन के लोगों के लिए उनका एक "बेहतरीन युग" होता है। सोचने की बात है, कि अगर इन सब यादों को मिला लें, तो मानव इतिहास की इतनी स्वर्णिम तस्वीर बनेगी, कि दुनिया का सारा सोना ख़त्म हो जाय, पर चित्र पूरा न हो पायेगा। दुनिया के हर शख्स के ज़ेहन में आपको ऐसा चित्र मिल जायेगा। जब आपके पास वर्तमान की कमर तोड़ ज़रूरतों से भागकर - स्विट्ज़रलैंड, पेरिस, गोवा, जाने का समय और व्यवस्था ना हो - तो आप ऐसे ही किसी यादों के शहर में शरण लेने सकते हैं। 
हमारा मोहल्ला हमारे साथ ही बड़ा होता है। बचपन के किसी मित्र की तरह हमारी सारी शरारतों में बराबर शामिल भी होता है - इसकी आड़ी टेढ़ी गलियों के संग दौड़ लगाना, आपकी पतंग कट जाय तो अपने किसी माकन की छत पर उसे सहेज रखना और पानी की बड़ी टंकी के पीछे, नए मौसम के नए प्यार के फूलों को सीचते रहना। मेरा शहर मेरे ऐसे ही किसी दोस्त के सामान है जिससे स्कूल ख़त्म होने के बाद मैं कभी नहीं मिला। वो अपने रास्ते चल पड़ा और मैं अपने। सुना है इन बीते सालों में अपने लिए काफी अच्छा कर लिया है उसने। कल ही पता चला वहाँ जो सरकारी स्कूल और उससे ही लगे खेलकूद का मैदान था, उसे खाली करवा वहां अपने लिए एक आलीशान मल्टी-स्टोरी बनवा ली है -  "ओक्टाविया सोसाइटी " ( जिस कसबे में यूरोपियन नाम की "सोसाइटी" बन जाय, उसे शहर कहा जा सकता है )। यहीं से कुछ दूरी पर रहते थे वो लोग जो, एक समय इस मोहल्ले और उसके घरों की साफ़ सफाई , देख-रेख करते थे। हार्वर्ड से लाये ज्ञान के FDI , यानि  प्लानिंग कमीशन ने, जैसे ही वैधानिक और अवैधानिक का अंतर समझाया, आस-पास के कुछ मुहल्लों ने मिल कर वो ज़मीन खाली करवा दी .. आखिर गैरकानूनी काम कैसे जारी रखने देते इतने दिनों तक। उस जगह अब शहर का पहला आलीशान मॉल बना गया है ( जिस कसबे में मॉल खुल जाय उसे शहर कहा जा सकता है ). पिछले दिनों पास की एक छोटी बस्ती ने कथित भ्रष्टाचार की कुछ आवाज़ उठाई थी, पर कल ही वहां "शोर्ट -सर्किट" के कारन आग लगने की खबर आई। मुहल्लों के संगठन ने अफ़सोस जताया, और ऐसी बस्तियों के आधुनिकरण की अपनी मांग वापस दोहराई।
गगनचुम्बी विकास को निहारती निगाहों से अभी तक बचा हुआ है, ज़मीन पर बैठा एक छोटा-सा घर - जहाँ मैं बड़ा हुआ। रोचक बात है कि शुरुआत से ही (मोहल्ले से विपरीत) ये घर हेमशा मुझे खुद से बड़ा लगा। बचपन में बहुत गुस्सा आता था इसपर। पूरे समय मेरी चुगली जो कर देता माँ से। सुबह को छुपाया मेरा दूध का गिलास हो या दोस्तों के साथ शेयर करी सिगरेट की बट, मौका देखते ही घरवालों को सब ज़ाहिर कर देता .. वो भी सबूत समेत। घर वाले भी भरोसा करते थे इस पर। तभी वो जब भी कहीं जाते, हिदायत मिल जाती हमें - घर से बहार न निकलना । अंदर ही रहना। शायद उन्हें यकीं होगा कि किसी वफादार की तरह  इनके चले जाने के बाद भी ये घर हमेशा निगेहबान रहेगा । और रहा भी। खुद भीग कर मानसून में, अपने छत की टोटियों से हमें झरने का मज़ा दिलाता रहा। दंगाइयों ने जब ग़दर मचाना चाहा .. सीमा पर तैनात किसी जवान की तरह रक्षा की हमारी। पर अब ये जवान कुछ बूढ़ा हो चला है। जबसे इसे छोड़ा है, फिर कभी जाना नहीं हुआ मेरा। पर ऐसा नहीं की मुझे इसका ख्याल नहीं। विदेश से हर महीने कुछ पैसे भेज देता हूँ। डॉलर में। EMI समझ लीजिये इसे ..घर के लिए .. घरवालों के लिए।
लिखने को और मन था, पर अब मेरी बस शहर के पास आ गयी है। शहर में लगे बड़े -बड़े बिलबोर्ड और चौंधिया देने वाली हलोजन लाइट की गर्मी में , गाँव की याद वाष्पीकृत हो जाती है। कल सुबह ये मरने का स्वांग खत्म हो जायेगा, ये शहर फिर जाग उठेगा। काश मैं भी जाग सकता ऐसे ही।    
 
सचिन जी लगता ही नहीं है कि आपका ये पहला ब्लॉग है I परिवेश को जितनी बारीकी से आप देख और भोग पाते हैं , वह आम लोगों के वश की बात नहीं ...स्वयं को विश्थापित न कहें ...प्रवासी ही ठीक है क्योंकि लौटने की गुंजाईश रहती है I
ReplyDeleteगाँव को अपने साथ हर सफ़र में हर घड़ी लिए चलना आपके गाँव कनेक्शन को स्पष्ट करता है ..ब्लॉग भी जब एक बार चल पड़ता है तो गाँव के आसपास ही चक्कर काटता रहता है ...
बहुत अच्छा बुना है आपने ...थोड़ी आयामों की कमी थी और लगता है एक सीटिंग में नहीं लिखा है इसलिए कहीं कहीं फ्लो भी थोडा मध्यम हो गया है ...शिल्प और सोच के हिसाब से यह परिपूर्ण है ..
आपके अगले ब्लॉग का इंतजार रहेगा ...
आपने तो बड़ी तारीफ़ लिखी है यहाँ पे... मैंने तो आपका कमेंट पढ़ा ही नहीं था :)
Deletegood one. writer ka sabse bada achievement hota hai ki padhne wale ko lage yehi to main sochta hoon, yan phir mere maan ki baat likh di. you are good at that.baat dil se nikli ho to kasauti pe parakhna galat hota hai.well done
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