Wednesday, August 28, 2013

ऑन ड्यूटी

रोज़,
९ बजे सुबह के,
और शाम के ६ बजे।
पास के गिरीजाघर में,
बजते हैं ज़ोर-ज़ोर से घंटे ।
रोज़,
मैं ९ बजे जाता हूँ दफ़्तर, 
और ६ पर लौट आता हूँ घर।
कल,
रविवार की सुबह
अपने समय से,
फिर बज गया 
गिरजाघर का घंटा।
मैं,
बालकनी में बैठा 
गोद में रखकर अखबार,
चाय पी रहा था।
हाँ,
इंसान होने के कुछ तो फायदे हैं ।

Sunday, August 11, 2013

छोटी मोटी नज्में - 2

शाम का नक्शा 
हर रोज़,
जब शाम उतरती है
दिन के शजर से ।
एक नक्शा छोड़ जाती है
बरामदे की दीवार पर मेरे ।
रात भर भटकता हूँ,
उस नक़्शे में दबी
   वक़्त की सुनसान गलियों में । 
कभी तो मिल जाए
वो एक लम्हा, 
जिसे जी कर कभी
मैं कहीं भूल आया हूँ ।


इंतज़ार
इंतज़ार करते रहे वो दोनों,
कभी आग लगेगी इस इंतज़ार को।
जिसकी राख मलकर अपने जिस्म पर,
फिर एक नई चाहत उगा लेंगे दोनों।
पर अब इस भट्टी में इतनी आग कहाँ ?
बस ठंडी आहें जलती हैं।
बरसती हैं जब यादें कहीं,
कोई दबी उम्मीद
फिर फट पड़ती है।


टिंकू की उलझन  
टांग कर बारिशें ,
अपनी छत्री के हैंडल पर वो ।  
दूसरे सिरे से,
खोंचने लगा बादलों को ।
कल रात कहा था अम्मा ने,
मिठाई रख दी है
ऊपर, सिकहर पे । 
अब परेशान बेचारा घूम रहा है । 
कि ये "ऊपर" से 
रस तो टपक रहा है । 
पर मिठाई छुपाई है कहाँ आखिर
इसका पता क्यों नहीं लग रहा है?

Saturday, August 3, 2013

मेलबॉक्स


घर के किसी बूढ़े की तरह, वो मेलबॉक्स हमेशा बाहर बालकनी से अकेला लटका हुआ मिलता है। किसी (रिटायर्ड) बुज़ुर्ग की तरह ही, वो गाँव/घर से आने वाली किसी खबर के इंतज़ार में, अपनी खाली आँखों को सामने की सूनी सड़क पर टिकाए रहता है। ठंड, बरसात, गर्मी- बारह महीने ये किसी हठयोगी की तरह एक पाँव पर खड़ा दिख जाएगा। दोनों ओर कान पर लाल रंग का ऐनक चढ़ाए, हर आने वाले संदेसे को पढ़ने के लिए तत्पर। लोकगीत की किसी बिरहन के जैसे इसका इंतज़ार भी प्राचीन और शाश्वत है। पर अब ज़मीन में धंसी इसकी बुनियाद हिलने लगी है। तेज़ हवा चलने पर कभी कभार ज़रा टेढ़ा हो जाता है। पूरा शहर का शहर गुज़र जाता है इसके सामने से, पर कोई इससे होकर नहीं गुज़रता। कभी कभी एक चिड़िया बैठी देखी है इस पर। शायद वो भी किसी अपने की ख़बर का इंतज़ार करती होगी। इसे देखकर लगता है जैसे अभी किसी भी वक़्त खड़े-खड़े, अपने बगल से छड़ी निकालकर, मोहल्ले के बाकी रिटायर्ड बूढों के संग, सैर पर निकल पड़ेगा। या आवाज़ लगाएगा पास से किसी गुजरने वाले को। और कई बार कह चुकी, किसी बिना मतलब वाली पुरानी बात को, फिर पूरी गंभीरता से दोहराएगा। पहले डाकिया आता था तो शिव मंदिर के बाहर विराजे नंदी बैल की तरह इसे, फूल के रूप में कुछ चिट्ठियां चढ़ा जाता था। अब तो बस क्रेडिट कार्ड के बिल और विज्ञापन ही पढ़ने को मिलते हैं इसे। शायद अब बाज़ार नए ज़माने का मंदिर है। पास का सुपरमार्केट और पीछे की गली वाला अक्यूपंक्चर स्पेशलिस्ट आए दिन कूपन, रिबेट, नयी सेल का संदेसा भिजवा कर बुलाते रहते हैं। ओल्ड फैशन हो चुकी चिट्ठी अब कोई लिखता नहीं। न्यू जनरेशन के एसएमएस इन पुराने बक्सों में आते नहीं।  संदेश सरल हो गए हैं, और रिश्ते संक्षिप्त। इनबॉक्स भी अब आभासी दुनिया के अनजाने रिश्तों के एहसास (पोस्ट्स/नोटीफ़िकेशन, आदि) से भरा पड़ा है। वहां भी किसी अपने की आवाज़ सुनने को नहीं मिलती। सब एक दुसरे को सुनने के इंतज़ार में हैं। पर कोई कुछ कहता नहीं।