घर के किसी बूढ़े की तरह, वो मेलबॉक्स हमेशा बाहर बालकनी से अकेला लटका हुआ मिलता है। किसी (रिटायर्ड) बुज़ुर्ग की तरह ही, वो गाँव/घर से आने वाली किसी खबर के इंतज़ार में, अपनी खाली आँखों को सामने की सूनी सड़क पर टिकाए रहता है। ठंड, बरसात, गर्मी- बारह महीने ये किसी हठयोगी की तरह एक पाँव पर खड़ा दिख जाएगा। दोनों ओर कान पर लाल रंग का ऐनक चढ़ाए, हर आने वाले संदेसे को पढ़ने के लिए तत्पर। लोकगीत की किसी बिरहन के जैसे इसका इंतज़ार भी प्राचीन और शाश्वत है। पर अब ज़मीन में धंसी इसकी बुनियाद हिलने लगी है। तेज़ हवा चलने पर कभी कभार ज़रा टेढ़ा हो जाता है। पूरा शहर का शहर गुज़र जाता है इसके सामने से, पर कोई इससे होकर नहीं गुज़रता। कभी कभी एक चिड़िया बैठी देखी है इस पर। शायद वो भी किसी अपने की ख़बर का इंतज़ार करती होगी। इसे देखकर लगता है जैसे अभी किसी भी वक़्त खड़े-खड़े, अपने बगल से छड़ी निकालकर, मोहल्ले के बाकी रिटायर्ड बूढों के संग, सैर पर निकल पड़ेगा। या आवाज़ लगाएगा पास से किसी गुजरने वाले को। और कई बार कह चुकी, किसी बिना मतलब वाली पुरानी बात को, फिर पूरी गंभीरता से दोहराएगा। पहले डाकिया आता था तो शिव मंदिर के बाहर विराजे नंदी बैल की तरह इसे, फूल के रूप में कुछ चिट्ठियां चढ़ा जाता था। अब तो बस क्रेडिट कार्ड के बिल और विज्ञापन ही पढ़ने को मिलते हैं इसे। शायद अब बाज़ार नए ज़माने का मंदिर है। पास का सुपरमार्केट और पीछे की गली वाला अक्यूपंक्चर स्पेशलिस्ट आए दिन कूपन, रिबेट, नयी सेल का संदेसा भिजवा कर बुलाते रहते हैं। ओल्ड फैशन हो चुकी चिट्ठी अब कोई लिखता नहीं। न्यू जनरेशन के एसएमएस इन पुराने बक्सों में आते नहीं।  संदेश सरल हो गए हैं, और रिश्ते संक्षिप्त। इनबॉक्स भी अब आभासी दुनिया के अनजाने रिश्तों के एहसास (पोस्ट्स/नोटीफ़िकेशन, आदि) से भरा पड़ा है। वहां भी किसी अपने की आवाज़ सुनने को नहीं मिलती। सब एक दुसरे को सुनने के इंतज़ार में हैं। पर कोई कुछ कहता नहीं। 

 
Awesome is the word Bro ...!!!!
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