Monday, October 28, 2013

पेड़

धूप में धुले धुले ,
ये पेड़ जब चमकते हैं।
हवा चले जो ज़ोर से,
तो झूम के लिपटते हैं।
शाख़ को ये मनचले,
यहाँ वहाँ घुमाकर।
उड़ती हुई पतंग को,
फिर कूद कर लपकते हैं।
बादलों को थामकर -
टहनियों की डोर से।
नहा के निकले बारिशों से,
ज़ुल्फ़ को झटकते हैं।
गुज़रे जो पास से कभी,
हसीन दिल वो गुलबदन।
पत्तों पर लिखे आवारा ख़त,
हौले से फिर टपकते हैं।
वो नाम गोद शाखों पर,
यार के खुमार में।
इसे प्यार के करार का,
वो दस्तख़त समझते हैं ।
उड़ जाते हैं परिंदे जब,
काम की तलाश में। 
ये गोद लेके घोंसलों को,
लोरिया सुनाते हैं।
उस फल को देखो रात में, 
कहते हैं चाँद वो जिसे।
सूरज की ताप में उसे, 
हर रोज़ वो पकाते है।  
जल जाती है जो टहनियां,
चाँदनी की आग में। 
तारों की छाँव के तले,
फिर उँगलियाँ बुझाते हैं।
गर्मियों में ताप से,
जब छुट्टियां चटकती हैं। 
ये ठंडी छाँव की वहीं, 
कुल्फ़ियां सजाते हैं।
जो कारे-कारे बादलों को,
श्याम खींच लाते हैं। 
सावन पे झूलते हुए, 
ये कजरिया सुनाते हैं।

Sunday, October 27, 2013

छोटी मोटी नज्में - ३

जूं
सर पर चढ़ा था कबसे,
भागता फिरता था हर कहीं,
खुजली सी रहती थी हर समय।
कितनी दफ़े कुरेदा, 
कितनी दफ़े धोया,
फिर भी निकला नहीं ।
एक दिन भागता हुआ
ठहर गया कहीं -
और लपक लिया मैंने। 
 हाथ आ ही गया आखिर।
नाखून के बीच रखकर
दाब दिया मैंने।
ना खून निकला
न दर्द हुआ
बस एक हलकी सी
"टिक" सी आवाज़ भर आई ।
वो एक लम्हा था वक़्त का -
सर पर चढ़ा था कबसे,
भागता फिरता था हर कहीं …
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फ़सल 
मेरी आँखों को चूमकर तुमने ,
एक सपना बो दिया था उस दिन। 
मैंने भी रोज़ सींची थी ,
आँखों की वो ज़मीन -
  कभी सूखी न रहने दी । 
बहुत दिन हो गए,
पर सपना अभी तक वो उगा नहीं ।
शायद अबकी, 
पानी कुछ ज्यादा खारा था ।  
शायद अबकी, 
कुछ बंजर सी गई है वो ज़मीन ।

Friday, October 18, 2013

तुमसे मिलकर, ऐसा लगा.…

जब से तुझसे मैं मिलने लगी हूँ, 
कुछ कुछ अधूरी सी रहने लगी हूँ।

सिमटती जाती हूँ जितनी तुझमें, 
खुद में उतनी ही बिखरने लगी हूँ।

भूल जाती हूँ मैं अपना ही पता,
गलियों से तेरी जो गुज़रने लगी हूँ। 

तेरे पास जितनी जाती हूँ मैं ,
दूर खुद से उतनी ही रहने लगी हूँ।

दिन गुजारें हैं जबसे खयालों में तेरे ,
खाली रातों से मैं रोज़ कटने लगी हूँ । 

चाहत में तेरी मरना न आया, 
तगाफुल में तेरे जीने लगी हूँ।   

ख़त जो तेरे फिर से पढ़ने लगी हूँ।
शायरी भी कुछ कुछ करने लगी हूँ।।  
   

Monday, October 7, 2013

रात की बात

बात बस इतनी सी है,
कि रात बस इतनी सी है ।
रात जो इतनी सी है,
वो आँख पर अटकी सी है ।

ख्वाब का टुकड़ा है साँसों में अटका ।
चाँद का मुखड़ा भी आस्मां में लटका ।
दे आता है कौन इन रातों को आवाजें ?
दिल की ये बातें कोई ना बता दे !  
शहर में ये ख़ामोशी बस्ती है कैसे ?
होंठों पर उनके ये सजती है कैसे ?
तुम्हीं अब बताओ की जाना कहाँ है ?
जा-जा के ये रातें फिर रूकती है कैसे ?
खाव्बों से पूछो ये क्यों खो गए हैं ?
बादल पर सर रखकर क्यों सो गए हैं ?
ये यादें चौराहों पर लटकी मिलेंगी ।
सुबह होने पर भी भटकती रहेंगी । 
अंगड़ाया आस्मां तो वो तारा भी टूटा,
जिसे समझा था घर वो सहारा भी छूटा।
घुम गए हैं जो नाम, कोई तो लौटा दो, 
रात की बाहों पर उनको गुदवादो । 
कभी तो कहोगे कि अब लौट आओ,
सफ़र के इन छालों को अब तो मिटाओ ।
कही न कभी हों वो बातें सुनाओ।
आँख जो झपकी तो रात फिसल जाएगी ।
रात जो फिसली तो बात गुज़र जाएगी ।
क्योंकि -
बात बस इतनी सी है,
कि रात बस इतनी सी है ।
रात जो इतनी सी है,
वो आँख पर अटकी सी है ।।