Sunday, October 27, 2013

छोटी मोटी नज्में - ३

जूं
सर पर चढ़ा था कबसे,
भागता फिरता था हर कहीं,
खुजली सी रहती थी हर समय।
कितनी दफ़े कुरेदा, 
कितनी दफ़े धोया,
फिर भी निकला नहीं ।
एक दिन भागता हुआ
ठहर गया कहीं -
और लपक लिया मैंने। 
 हाथ आ ही गया आखिर।
नाखून के बीच रखकर
दाब दिया मैंने।
ना खून निकला
न दर्द हुआ
बस एक हलकी सी
"टिक" सी आवाज़ भर आई ।
वो एक लम्हा था वक़्त का -
सर पर चढ़ा था कबसे,
भागता फिरता था हर कहीं …
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फ़सल 
मेरी आँखों को चूमकर तुमने ,
एक सपना बो दिया था उस दिन। 
मैंने भी रोज़ सींची थी ,
आँखों की वो ज़मीन -
  कभी सूखी न रहने दी । 
बहुत दिन हो गए,
पर सपना अभी तक वो उगा नहीं ।
शायद अबकी, 
पानी कुछ ज्यादा खारा था ।  
शायद अबकी, 
कुछ बंजर सी गई है वो ज़मीन ।

6 comments:

  1. हा हा ...जुएँ पर इतनी भावनात्मक बात शायद ही किसी ने लिखी हो ! :)
    और फ़सल के लिए --
    "जो सपना बोया है, उसको अच्छे से सींचना...
    ख़्वाब के बीज को हकीक़त की ज़मीं देना....."

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  2. घडी की टिक के साथ जुएँ की टिक मिल सी गयी- कौन मरा, पता नहीं चला ।

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  3. लम्हा शायद जूँ की तरह टिक न मर पाये ........

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