जब से तुझसे मैं मिलने लगी हूँ, 
कुछ कुछ अधूरी सी रहने लगी हूँ।
सिमटती जाती हूँ जितनी तुझमें,
खुद में उतनी ही बिखरने लगी हूँ।
भूल जाती हूँ मैं अपना ही पता,
गलियों से तेरी जो गुज़रने लगी हूँ।
तेरे पास जितनी जाती हूँ मैं ,
दूर खुद से उतनी ही रहने लगी हूँ।
दिन गुजारें हैं जबसे खयालों में तेरे ,
खाली रातों से मैं रोज़ कटने लगी हूँ ।
चाहत में तेरी मरना न आया,
तगाफुल में तेरे जीने लगी हूँ।
ख़त जो तेरे फिर से पढ़ने लगी हूँ।
कुछ कुछ अधूरी सी रहने लगी हूँ।
सिमटती जाती हूँ जितनी तुझमें,
खुद में उतनी ही बिखरने लगी हूँ।
भूल जाती हूँ मैं अपना ही पता,
गलियों से तेरी जो गुज़रने लगी हूँ।
तेरे पास जितनी जाती हूँ मैं ,
दूर खुद से उतनी ही रहने लगी हूँ।
दिन गुजारें हैं जबसे खयालों में तेरे ,
खाली रातों से मैं रोज़ कटने लगी हूँ ।
चाहत में तेरी मरना न आया,
तगाफुल में तेरे जीने लगी हूँ।
ख़त जो तेरे फिर से पढ़ने लगी हूँ।
शायरी भी कुछ कुछ करने लगी हूँ।।  
    
ये तो बहुत सूफ़ियाना हो गया :)
ReplyDeleteकमाल !
स्त्री के असमंजस का चित्रण दुरुह लेखन है बहुत आत्मविश्वास अनुभव और न्याय की आवश्यकता होती है आपने तीनों का उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है .......साधुवाद
ReplyDeleteभूल जाती हूँ मैं अपना ही पता,
ReplyDeleteगलियों से तेरी जो गुज़रने लगी हूँ।
Bas ek hi sahbd nikalata hai.. Wah..