Wednesday, December 4, 2013

बिना मीटर ग़ज़ल - ५

सफ़र जुदा होने पर, साथ छुट जाएँगे क्या ?
रास्ते मिलने पर, दिल भी मिल जाएँगे क्या ?

मौसमों के शहर में, कुछ महीने दूरी सही ।
बर्फ़ पिघलने पे, फ़ासले भी गल जाएँगे क्या ?

इस सियासी मामूरे में, इंतखाबी बाज़ार हैं । 
वो खरीदते खरीदते, खुद बिक जाएँगे क्या ?

दीने नासेह ने यहाँ, अहले-खुदाई छाप दी ।
ज़रा उनसे पूछो, ख़त एक लिख पाएँगे क्या ?

ज़ख्म भरता ही नहीं, एक बेचारे सवाल से ।
जो भर गए नासूर सब, तो वो सहलाएँगे क्या ?

सालों सागर में रखी, मय और नशीली होगी
तमाम उम्र जुस्तजू रखी, आप संभल पाएँगे क्या ?

रात लम्बी ही सही, इस जागते से ख्वाब में ।
एक बार आँख खुल गई, फिर सो पाएँगे क्या ?

चाचा ग़ालिब से माफ़ी माँगते हुए )
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१- नगर 
२- चुनावी
३- उपदेशक 
४- शराब कि बोतल 

1 comment:

  1. चाचा ग़ालिब माफ़ी नहीं .... शाबाशी देंगे :) इतना बेहतरीन लिखा है।

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