Sunday, January 26, 2014

बिना मीटर की ग़ज़ल - 6

िदल की आवाज़ दबाने के लिए,
धड़कने काफ़ी है शोर मचाने के लिए ।१।

निगाहें रास्तों पे चल रही हैं मगर,
एक मन है बैठा भटकाने के लिए ।२।

ता-उम्र दमे-लहर1 पर हम तैरा किए,
एक आह निकली फिर डुबाने के लिए ।३।

सुना है हर महफ़िल का शायर है वो, 
एक शहर बसाया है इस विराने के लिए ।४।

पिछले सावन जल गई गज़लें कितनी,
कभी मिलो भी, फिर रूठ जाने के लिए ।५।

बहारों ने एक फूल और खिलाया तो क्या ?
कई नज़्में जलीं दश्ते2 मन खिलाने के लिए ।६। 

न ज़बाँ सीखी कभी, न अदीबी3 आई हमें
कहलाया शायर मगर ज़माने के लिए ।७। 
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1- साँसों की लहर
2- रेगिस्तान
3- स्कॉलरशिप

Tuesday, January 14, 2014

कविता की क़िस्मत

कविता,
कविता तुम क्यों स्त्री हुई ?
कि जन्म लेने से पहले ही,
कई बार 

ज़हन के गर्भ में,
तुम्हारी मौत हुई । 
पैदा होकर भी,
ऐसे छुपाए रखता है,
जन्म देने वाला तुम्हें ।
जैसे कोई उजालों में,
अपने अँधेरे छुपाता हो ।
कैसा लगता होगा उस
कोरे, सुनसान घर में उतरना
जहाँ कोई सोहर नहीं सजता ।
होता है केवल सन्नाटा -
एक थकी हुई सोच का ।
सुनाई पड़ता है केवल शोर -

एक एहसास के मर जाने का । 
फिर ,
बालिक होने के हर पड़ाव पर,
कितनी बंदिशों में बाँधी जाती हो तुम -
कि शरीर का एक-एक पुर्ज़ा,
तय शुदा ढाँचे में ढलने पर मजबूर ।
और हिदायत ये कि ,

धड़कन की थाप भी चले तो,
एक निर्धारित ताल पर ही ज़जूर ।
और जवानी जहाँ,
ख्वाहिशों की उमंगों पर
उछलती दिखे तुम्हारी आँख में,
वहीं तुरंत -
तश्बीह, आदि अलंकार से लादकर
रुक्सत कर देते हैं तुमको -
किताब के चार कोनों के बीच बिठाकर,
किसी पराए (प्रकाशक) की गली ।
और तुम्हारे माथे पर चिपका देते हैं,
एक नाम, एक पहचान -
जो किसी और ने तय की ।

साथ ही वो लगा देते हैं 
आख़िर में, एक पूर्णविराम -
कि, कदम उठने के पहले ही 
सारी हदें तय हो सकें,
कोई गुंजाईश न बचे कहीं
किसी आरज़ू के पनपने की ।
कागज़ पर यूँ क़ैद कर के तुमको ,
वो नीचे दस्तख़त कर जाता है ।
तुमको अपनी जायदाद समझ के,
सदा के लिए, 
अपने नाम कर जाता है।
फिर वहीं ठहरी सिमटी हुई,
तुम कितने हाथों से गुज़रती जाती हो ।
कितने ही चहरों को पढ़ते हुए,
तुम ख़ुद को भूलती जाती हो ।
ता उम्र वो पूरा पढ़ने की चाह में -
तुमको अधूरा करते जाएँगें ।
तुमसे कुछ पूछे बिना ही ,
तुमको समझते 
जाएँगें ।।

Monday, January 6, 2014

टूटी त्रिवेणियाँ - १

1)
बस इतना समझना काफ़ी था,
कि कुछ और समझना बाक़ी नहीं ।

दोनों ने एक दूसरे को नासमझ समझा ।।

2)
दिनभर गरजे बादल। 
दिनभर बरसा पानी ।

दो आँख में फिर भी ठहरा नहीं पानी ।। 

3)
रात गिरने की देर थी,
और साँसों ने करवट ली ।

दिनभर जिस्म में जान भरी,
और खुद की जान निकल गई ।।

4)
सूखी टहनियाँ तोड़ी सबने, 
ख़ूब अलाव जलाया, हाथ तापा । 

सुना है इस दिसम्बर चुनाव हैं ।।

5 )
सर्दी के संदूक से कुछ कपड़े हैं निकाले ।
स्वेटर, मफ़लर, टोपी, ऊन के दस्ताने ।

पिछली सर्दी की गर्मियाँ अब तक संभाल कर रखी हैं ।।

6)
अभी अभी पककर निकला बासमती का दाना,
सफेद बदन पर अपने ओढ़े, खुशबू का दुशाला ।

अभी अभी निकली है बाहर,वो अपने घर से नहाकर ।।

7)
लाचारी है दुनिया में पसरी ।
बचपना खा गई है भुखमरी ।

उठो,एक कविता लिखो,तुक बिठाओ और सो जाओ ।।

8)
इमामबाड़े में मिले थे कल, तो राम राम कर लिया ।
कालीबाड़ी में दिखे तो, झुक कर सलाम कर दिया ।

एक तरह का स्वाद ज़बाँ पर, भाता नहीं हमें ।।

9)
पास ही रहता है , पर बात नहीं होती ।
आवाज़े फिसलती रहती है दिवार पर ।। 

सीने पर आजकल कई सिलवटे पड़ी हैं ।। 

10)
बैठे रहती हैं दीवारों पर एक साथ । 
बातें सुनाती हैं चहक के हर बार ।

ये किताबें यूँ ही उड़ती फिरती हैं मेरे घर में ।।
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(गुलज़ार साहब से माफ़ी माँगते हुए) 

Thursday, January 2, 2014

बस यूँ ही-३ .... छोटी सी बात

बात इतनी सी थी, 
और कही भी न गई ।
पलकों से टपकी ,
आँखों में रखी भी न गई ।
ज़हर होता तो, 
बाँध लेता गले में, मगर ।
अमृत थी, जानकर -
निगली भी न गई ।
मेले में मुखौटे,
पहने तो बहुत ।
दलीलों में उनकी,
भटके तो बहुत ।
बात ये अकेली,
मंज़िल ना पा जाए कहीं -
ये सोचकर, भीड़ में
छोड़ी भी न गई ।
जुनूँ है, फ़ितूर है ,
खुद में है और दूर है । 
हर जवाब एक सवाल है ,
बात है, बवाल है । 
खुद मायने अपने,
समझ न लें कहीं । 
चुप चाप खुद में,
सुलझ न ले कहीं । 
ये बात इस डर से ,
मन में रखी भी न गई । 
रात की दहलीज़ पे,
सुबह के निशान हैं ।
आरज़ू की ज़मीन पे,
सपनों के मकान हैं ।
कोई रास्ता तो होगा ,
जो मुड़ के फिर न आए । 
आतिशे तमन्ना से,
आस्मां जलाए । 
आती जाती साँस पे ,
हर रात तुलती जाएगी। 
ज़िन्दगी यूँ ही कटेगी, 
और बात बहती जायेगी।