Monday, January 6, 2014

टूटी त्रिवेणियाँ - १

1)
बस इतना समझना काफ़ी था,
कि कुछ और समझना बाक़ी नहीं ।

दोनों ने एक दूसरे को नासमझ समझा ।।

2)
दिनभर गरजे बादल। 
दिनभर बरसा पानी ।

दो आँख में फिर भी ठहरा नहीं पानी ।। 

3)
रात गिरने की देर थी,
और साँसों ने करवट ली ।

दिनभर जिस्म में जान भरी,
और खुद की जान निकल गई ।।

4)
सूखी टहनियाँ तोड़ी सबने, 
ख़ूब अलाव जलाया, हाथ तापा । 

सुना है इस दिसम्बर चुनाव हैं ।।

5 )
सर्दी के संदूक से कुछ कपड़े हैं निकाले ।
स्वेटर, मफ़लर, टोपी, ऊन के दस्ताने ।

पिछली सर्दी की गर्मियाँ अब तक संभाल कर रखी हैं ।।

6)
अभी अभी पककर निकला बासमती का दाना,
सफेद बदन पर अपने ओढ़े, खुशबू का दुशाला ।

अभी अभी निकली है बाहर,वो अपने घर से नहाकर ।।

7)
लाचारी है दुनिया में पसरी ।
बचपना खा गई है भुखमरी ।

उठो,एक कविता लिखो,तुक बिठाओ और सो जाओ ।।

8)
इमामबाड़े में मिले थे कल, तो राम राम कर लिया ।
कालीबाड़ी में दिखे तो, झुक कर सलाम कर दिया ।

एक तरह का स्वाद ज़बाँ पर, भाता नहीं हमें ।।

9)
पास ही रहता है , पर बात नहीं होती ।
आवाज़े फिसलती रहती है दिवार पर ।। 

सीने पर आजकल कई सिलवटे पड़ी हैं ।। 

10)
बैठे रहती हैं दीवारों पर एक साथ । 
बातें सुनाती हैं चहक के हर बार ।

ये किताबें यूँ ही उड़ती फिरती हैं मेरे घर में ।।
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(गुलज़ार साहब से माफ़ी माँगते हुए) 

4 comments:

  1. कभी-कभी गज़ब बढ़िया लिख देते है आप :)

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  2. Aap guljar ji say kafi prbhawit lagtay wo sakhsiyat hi asi hai

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  3. Aap guljar ji say kafi prbhawit lagtay wo sakhsiyat hi asi hai

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  4. काफी दिनों बाद आपका ब्लॉग पढ़ा ! वाकई बेहतरीन त्रिवेणियाँ ।

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