कविता,
कविता तुम क्यों स्त्री हुई ?
कि जन्म लेने से पहले ही,
कई बार
ज़हन के गर्भ में,
तुम्हारी मौत हुई ।
पैदा होकर भी,
ऐसे छुपाए रखता है,
जन्म देने वाला तुम्हें ।
जैसे कोई उजालों में,
अपने अँधेरे छुपाता हो ।
कैसा लगता होगा उस
कोरे, सुनसान घर में उतरना
जहाँ कोई सोहर नहीं सजता ।
होता है केवल सन्नाटा -
एक थकी हुई सोच का ।
सुनाई पड़ता है केवल शोर -
एक एहसास के मर जाने का ।
फिर ,
बालिक होने के हर पड़ाव पर,
कितनी बंदिशों में बाँधी जाती हो तुम -
कि शरीर का एक-एक पुर्ज़ा,
तय शुदा ढाँचे में ढलने पर मजबूर ।
और हिदायत ये कि ,
धड़कन की थाप भी चले तो,
एक निर्धारित ताल पर ही ज़जूर ।
और जवानी जहाँ,
ख्वाहिशों की उमंगों पर
उछलती दिखे तुम्हारी आँख में,
वहीं तुरंत -
तश्बीह, आदि अलंकार से लादकर
रुक्सत कर देते हैं तुमको -
किताब के चार कोनों के बीच बिठाकर,
किसी पराए (प्रकाशक) की गली ।
और तुम्हारे माथे पर चिपका देते हैं,
एक नाम, एक पहचान -
जो किसी और ने तय की ।
कविता तुम क्यों स्त्री हुई ?
कि जन्म लेने से पहले ही,
कई बार
ज़हन के गर्भ में,
तुम्हारी मौत हुई ।
पैदा होकर भी,
ऐसे छुपाए रखता है,
जन्म देने वाला तुम्हें ।
जैसे कोई उजालों में,
अपने अँधेरे छुपाता हो ।
कैसा लगता होगा उस
कोरे, सुनसान घर में उतरना
जहाँ कोई सोहर नहीं सजता ।
होता है केवल सन्नाटा -
एक थकी हुई सोच का ।
सुनाई पड़ता है केवल शोर -
एक एहसास के मर जाने का ।
फिर ,
बालिक होने के हर पड़ाव पर,
कितनी बंदिशों में बाँधी जाती हो तुम -
कि शरीर का एक-एक पुर्ज़ा,
तय शुदा ढाँचे में ढलने पर मजबूर ।
और हिदायत ये कि ,
धड़कन की थाप भी चले तो,
एक निर्धारित ताल पर ही ज़जूर ।
और जवानी जहाँ,
ख्वाहिशों की उमंगों पर
उछलती दिखे तुम्हारी आँख में,
वहीं तुरंत -
तश्बीह, आदि अलंकार से लादकर
रुक्सत कर देते हैं तुमको -
किताब के चार कोनों के बीच बिठाकर,
किसी पराए (प्रकाशक) की गली ।
और तुम्हारे माथे पर चिपका देते हैं,
एक नाम, एक पहचान -
जो किसी और ने तय की ।
साथ ही वो लगा देते हैं 
आख़िर में, एक पूर्णविराम -
आख़िर में, एक पूर्णविराम -
कि, कदम उठने के पहले ही 
सारी हदें तय हो सकें,
कोई गुंजाईश न बचे कहीं
किसी आरज़ू के पनपने की ।
कागज़ पर यूँ क़ैद कर के तुमको ,
वो नीचे दस्तख़त कर जाता है ।
तुमको अपनी जायदाद समझ के,
सदा के लिए, अपने नाम कर जाता है।
कागज़ पर यूँ क़ैद कर के तुमको ,
वो नीचे दस्तख़त कर जाता है ।
तुमको अपनी जायदाद समझ के,
सदा के लिए, अपने नाम कर जाता है।
फिर वहीं ठहरी सिमटी हुई,
तुम कितने हाथों से गुज़रती जाती हो ।
कितने ही चहरों को पढ़ते हुए,
कितने ही चहरों को पढ़ते हुए,
तुम ख़ुद को भूलती जाती हो ।
ता उम्र वो पूरा पढ़ने की चाह में -
तुमको अधूरा करते जाएँगें ।
तुमसे कुछ पूछे बिना ही ,
तुमको समझते जाएँगें ।।
ता उम्र वो पूरा पढ़ने की चाह में -
तुमको अधूरा करते जाएँगें ।
तुमसे कुछ पूछे बिना ही ,
तुमको समझते जाएँगें ।।
 
वाह.. कमाल है।
ReplyDeleteएक लाइन मेरी ओर से -
जो भी हो कविता की किस्मत बहुत अच्छी होती है..
कम से कम तुम जैसे शायर के ज़हन में तो बसती है !
कविता तेरी यही कहानी जीवन भर आँखों में पानी ...औरत रूपी कविता का शब्दों में इतना खुबसूरत और मार्मिक चित्रण सिर्फ आप ही कर सकते हैं ...वाह
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