Monday, February 24, 2014

फिशिंग इन ट्रबल्ड वाटर्स

अपनी असुरक्षायों और
अंतरविरोधों के तालाब में
पाँव डुबाया मैं ,
एक ख्याल का काँटा डाले
कई आस लिए बैठा था ।
कांटे में फंसाकर लम्हें
फेंके थे कुछ तालाब में
वक़्त का भवँर पैरों पर
चढ़ता उतरता रहा ।
कैफ़ियत के ग़ुबार में 
साँसों का शोर छुपाता
तजुर्बे के किनारे
शान्त मैं बैठा रहा। 
और फिर कुछ देर में ही ,
एक हलचल सी अंदर हुई
जैसे कोई डंडी पकड़कर,
बुला रहा हो मुझे अंदर ।
या आना चाहता हो बाहर,
जैसे तालाब की घुटन में उसे
अब और जीना ग़वारा न हो ।
मैंने मौक़े का फंदा घुमाया,
क़िस्मत पे ज़ोर लगाया । 
एक अल्फाज़ तब निकला,
काँटे से आधा लटका हुआ ।
उसे छुड़ाकर कांटे से-
ध्यान से, आहिस्ता से । 
अपनी डायरी के डब्बे में
उसे संभाला, रख दिया ।
एक साँस और दबी वहीं ।
एक पँक्ति और उगी तभी ।
अपने कमज़ोरियों के तालाब में,
पाँव डुबाया मैं ,
एक ख्याल का काँटा डाले
एक दिन यूँहीं बैठा था ।

Sunday, February 23, 2014

शब्दकोश

जब भी गुज़रता हूँ  
किसी किताब से । 
हर दो कदम पे
किसी पन्ने के मोड़ पर ।
एक टोल प्लाज़ा जैसे, 
खड़ा रहता है एक शब्द । 
अपने मोटे चश्में से घूरे,
किसी सरकारी शिक्षक जैसे । 
पूछता है,"क्या मायने हैं मेरे ? 
मैं क्यों हूँ यहाँ ? 
मेरा औचित्य क्या है ?
बहुत हैं मुझसे और, 
तो मेरा यहाँ काम क्या है ?"
मैं भी इन्हीं सवालों से, 
अक्सर गुज़ुरता हूँ -
पर कहता कुछ नहीं । 
बस गर्दन झुकाए नीचे,
हर एक सवाल पे । 
हाथ आगे कर देता हूँ, 
कुछ सीखने की चाह में । 
सोचता हूँ अक्सर -
कितना आसाँ होता !
जो ज़िन्दगी का भी,
कोई शब्कोश होता । 
शब्दों के बीच फंसी 
खामोशी के जहाँ मायने मिलते । 
कोई पुल मिलता जो
इस खाई के 
दोनों सिरों को जोड़ता ।
कितना आसान होता, 
मैं पन्ने पलट कर ही, 
सब कुछ पलट देता । 
  

एक शाम बरामदे में

दिन बुझते हुए,
बरामदे का एक,
बल्ब जला गया ।
फिर शाम की सुरंग के
आगे उसे लटका गया ।
कुछ पतंगे तब उसे
छूने की फ़िराक़ में । 
निकले अपने अंधेरों से ,
और लगे वहीं मंडराने ।
झुण्ड में आए थे सब,
तमन्ना लिए बेसबब ।
कुछ एक सी आवाज़ किए ।
कुछ एक से चेहरे लिए ।
कुछ तो था उस बल्ब में
जिसे छूने की चाह में । 
जा जा के लौट आते थे ,
जल जाने की परवाह में ।
शाम रात में फिसल गई
और बात ज़हन से निकल गई।
कभी रात की ख़ामोशी,
उनके पंखों पे भंभनाती थी ।
पागल चाहत कभी नकी,
रातों को रौशन कर जाती थी ।
रातभर ये छूने, छलने का
खेल यूँहीं चलता रहा । 
हर चट्ट की आवाज़ में ,
मैं भी कुछ जलता रहा । 
नींद खुली तो देखा, 
वहीं उस बल्ब के नीचे । 
काले, नीले, जले हुए,
वो पतंगे सब मर गए । 


वो बल्ब जलता हुआ,
एक सुलगता हुआ ख्याल था । 
और वो तड़पते हुए पतंगे , 
कुछ शब्द थे; मायने ढूँढ़ते  ।
वो शब्द सारे जल गए, 
मेरी नज़्म अधूरी रह गई । 
वो ख्याल जलता रह गया -
जाने अब कितनों की, और जान लेगा । 

Friday, February 21, 2014

जूठन

मेरे खयाल बासी 
और शब्द जूठे हैं ।
इन्हें बेच दो -
शहर के सेकंड हैण्ड मार्केट में ।
शब्द ज़रिया नहीं ज़ंजीर हैं ।
इनके टूटने में सुनो कभी ,
जकड़ी हुई किलकारियों को । 
ये किसके शब्द हैं जहाँ ,
मेरी भावनाएँ गिरवी पड़ी है ?
किसी सरकारी ज्ञापन जैसे
हमेशा घूम के चले आते हैं -
ये शब्द
मुझे याद दिलाने किसी 
उधार माँगी हुई सोच का ।
पर्चे की फोटोकाॅपी जैसे,
बाँट गया है कोई इन्हें ।
भी ढूँढना तुम इनमें,
अपने थके हुए चहरे ।
जिन्हें अपने ख़यालों की 
काली स्याही से कोई ,
पहले ही लीप गया है ।

पोस्टस्क्रिप्ट :

विचारों से बाँझ हुआ,
फिर से पाता हूँ खुद को,
किराए की एक कोख़ के पास खड़ा । 
जहाँ किसी दूसरे के लहू (शब्द) में 
लिपटा हुआ मेरा एक ख़याल, 
रोता हुआ जन्म ले रहा है । 

Friday, February 14, 2014

ये रातें नई पुरानी

रातें टपकती है,
आसमां की छत से ।
नींदें छपकती है,
पलकों पे कब से । 
मन के तकिए पे,
एक आवाज़ सो जाती है । 
करवटों के बीच में
जाने कहाँ खो जाती है । 
रौशनी के सोने
और जागने से पहले । 
यादों में उगते हैं
कितने अँधेरे !
हवा में लिपटा
एक साया गुज़र जाता है । 
साँसों के बीच का
सन्नाटा ठहर जाता है । 
हर धड़कन को रोज़
एक ख्वाब को ढोना है । 
फिर मनाना खुद को ,
जो होना है वही होना है ।
कोई तो बात होगी ,
जो मन और ज़ुबान 
के बीच से निकल जाएगी । 
कोई तो रात होगी जिसकी,
ढले बिना ही सहर आएगी ।
तारों की गंगा में,
उतरे बिना ही ।
ये रात कैसे पार हो,
डूबे बिना ही ?
बेख़बर रातें अक्सर,
यूँही बरस जाती है । 
जब सपने लिए नींदें,
पलकों से सरक जाती है ।


Thursday, February 13, 2014

ऐको

हौलो, खोखला । 
सुना है कभी ?
कैसा ऐको होता है ।

पहाड़ी के टॉप पे 
देखा है कभी ?
कि जिसके आगे 
कुछ नहीं होता । 
आवाज़ दी अगर,
तो होता है केवल ऐको ।  
कितनी ही बार,
खुद को लेजाकर वहाँ
छोड़ आता हूँ । 
पर साथ चला आता है 
मेरा ही ऐको ।

ख़ाली कमरे से,
कुछ कहा है कभी ? 
कैसे पलट के  
चले आते हैं सवाल। 
ऐसे ही ये रात
रोज़ पलट के
चली आती है,
सवाल बनकर 
एक खोखले से दिन का। 
ये रात भी ,
एक ऐको है ।  

रौशनी म्यूट होने पर  
रात की घंटी,
सुनी है कभी ?
कि जब कोई नहीं होता आस-पास। 
तो ये मन के कान ,
अपनी ही कोई 
आवाज़ सुनाते हैं ।
जो दिनभर कहकर,
ख़ाली हो गया हो -
उसे सुनाई पड़ता है 
अपनी ही 
अनकही बातों का ऐको ।    


किसी ठहरे से पल ने 
छुआ है कभी ?
जो पल -
घड़ी की सुइयों के
बीच से निकल लें । 
जो हों एक दम हलके। 
न कोई एहसास ,
और न चाहत हो । 
ऐसे ही ख़ाली पल में, 
तुम गिनना कभी, 
अपनी ही
दबी साँसों का ऐको । 

कहीं कुछ ऐसा ही, 
पढ़ा है कभी ?
जहाँ कोई ऐलान न हो । 
और न ही किसी ने, 
कहा हो कुछ भी ।  
ये जो बेमायने सा लिखा है -
ये भी ऐको है, 
एक हौलो से मन का । 


Monday, February 10, 2014

बिना मीटर की ग़ज़ल - ७

चल पड़ना फिर वहीं लौट आने के लिए ,
मंज़िलें बदलना रास्ता पहचानने के लिए ।१।

यूँ गुज़री हर घड़ी कि गुज़रने से पहले ,
फ़क्त निशां भी ना छोड़ा मिटाने के लिए ।२।

कभी बँध गए थे पैरों में कुछ रास्तों के साए ,
कुछ रह गए थे मोड़ पर घुट जाने के लिए ।३।
   
दिन का भार पीठ पे लादे भटकते रहे हम,
अब करवट कौन बदले रात बढ़ाने के लिए ।४।

दिसंबर की हवा में ये कैसी है नमी ,
राज़ भी यहाँ छुपता नहीं बताने के लिए ।५।

राख में अब तलक बची है रूह की महक, 
ख्वाईश फिर जली एक तारा बुझाने के लिए ।६।

ख़त मेरा पुराना शायद फिर पलटा उन्होंने 
एक नाम पढ़ा फिर से भूल जाने के लिए ।७।

चुप चाप हर साँस को सुलाया था हमने , 
एक ख्वाब जगाया रातों ने फिर सताने के लिए ।८।

हर आरज़ू से बचना खुद को बचाने के लिए  ,
हर आह से बचे आखिर में जल जाने के लिए ।९

Tuesday, February 4, 2014

लप्रेक*-१

यहाँ लिखी बाकी सभी रचनाओं के जैसे ये भी केवल ख़ाली वक़्त की ऊबन का नतीजा है। इसे उसी नज़र से पढ़ें । 
१)
समा इतना खूबसूरत भी नहीं था कि उसे उपमाओं से लाद दिया जाए । एक हल्की शाम में कुछ मामूली दुकानें, इंतज़ार करने से पहले ही थक चुकी थीं । वो दुकान के सामने की ज़मीन को पानी के छींटों से जगाता रहा । ऊपर, स्टॉप पर एक टेम्पो रुका । वो नीचे उतरकर आगे चल पड़ी । ढलान पर कदम यूँ बढ़ रहे थे जैसे टेम्पो की गड़गड़ाहट उसके जूतों में घुस गई हो । दुकान के पास पहुँचते ही जूतों को ब्रेक लग गया  । पानी छींटता हुआ उसका हाथ भी बीच हवा में ठहर गया । गीले हाथों को शर्ट में पोंछते हुए, सूखे पैरों को गीली मिट्टी से बचता हुआ, वो उसके नज़दीक आ गया । अपने स्कूल के बैग से उसने एक किताब निकाली - ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स । किताब देखकर वो आँखों से मुस्कुरा दिया । उँगलियों को किताब पर फेरते हुए, कुछ बुदबुदाता हुआ अंदर चला गया । वो भी हाथों से कुछ कहती हुई आगे को निकल गई। बाज़ार का शोर वहीं खड़ा रहा । इस मामूली सी शाम में, दुकानें अब कुछ कुछ जागने लगी थी ।

२)
क्या बात करें ? पॉलिटिक्स की बातें तुम्हें बकवास लगती है । इस शहर में कोई दोस्त नहीं जिनकी बुराई करें । गैरों पे और कितना रश्क करेंगे हम ? और ये मौसम, चाँद, सितारे - ये सब मेरे लिए साइंस है । रोमांस नहीं । और हम ? चुप्पी । मैं ह्यूमैनिटिस में हमेशा ३५ मार्क्स से ही पास होता था मैडम । और मैं फर्स्ट क्लास, विथ डिस्टिंक्शन । हमेशा । मैं तो कब से अपनी कॉपी खोले बैठी हूँ । तुम जवाब कॉपी ही नहीं करते । जब दोनों जगह सवाल ही अलग हों तो तुम्हारा सही जवाब भी मुझे केवल फ़ेल ही करा सकता है । विथ डिस्टिकशन । 

३)
हल्दी सी पिली दुपहरी में वो नक़ाब पहन कर स्कूटी पर दनदनाते हुए आ रही थी। नकाब ऐसा कि धूप की एक बूँद भी जिस्म पर टपकने न पाए ।  उसने तुरंत कोचिंग के नीचे , छाँव में स्कूटी खड़ी करी। कानों से हैडफ़ोन निकला । कुछ मोबाइल में टिपिर टिपिर कर ही रही थी कि वो सीढ़ियों से नीचे उतरता हुआ दिखा। उसने इशारा किया । वो फ़ौरन पीछे की सीट पर खसक गई । स्कूटी दोपहर की आँख में धूल उड़ाती खो गई। कुछ कोचिंग बिना एडमिशन लिए यूँ ही पूरी हो जाती है ।

४)
मेरे पीछे पीछे आ जाओ । ये मिडिल एज आंटी टाइप क्या डर रही हो । हाथ पकड़ लो मेरा । बाप रे ! यहाँ मॉल में । सबके सामने । उससे अच्छा तो इस ऐसकलेटर पे ही फिसल जाऊँ। अरे कौन देख रहा है ? अब किसी को फर्क नहीं पड़ता है । सुनो , यहाँ पार्क की जगह पर अब मॉल भले ही बन गया है पर लोग आते अभी भी उसी काम के लिए हैं। वर्जिश करने ? नहीं नज़ारे लेने ।

*लप्रेक = लघु प्रेम कथा। रवीशजी का TM है ।