जब भी गुज़रता हूँ  
किसी किताब से ।
हर दो कदम पे
किसी पन्ने के मोड़ पर ।
एक टोल प्लाज़ा जैसे,
खड़ा रहता है एक शब्द ।
अपने मोटे चश्में से घूरे,
किसी सरकारी शिक्षक जैसे ।
पूछता है,"क्या मायने हैं मेरे ?
मैं क्यों हूँ यहाँ ?
मेरा औचित्य क्या है ?
बहुत हैं मुझसे और,
तो मेरा यहाँ काम क्या है ?"
मैं भी इन्हीं सवालों से,
अक्सर गुज़ुरता हूँ -
पर कहता कुछ नहीं ।
बस गर्दन झुकाए नीचे,
हर एक सवाल पे ।
हाथ आगे कर देता हूँ,
कुछ सीखने की चाह में ।
सोचता हूँ अक्सर -
कितना आसाँ होता !
जो ज़िन्दगी का भी,
कोई शब्कोश होता ।
शब्दों के बीच फंसी
खामोशी के जहाँ मायने मिलते ।
कोई पुल मिलता जो
इस खाई के
दोनों सिरों को जोड़ता ।
कितना आसान होता,
मैं पन्ने पलट कर ही,
सब कुछ पलट देता ।
  
किसी किताब से ।
हर दो कदम पे
किसी पन्ने के मोड़ पर ।
एक टोल प्लाज़ा जैसे,
खड़ा रहता है एक शब्द ।
अपने मोटे चश्में से घूरे,
किसी सरकारी शिक्षक जैसे ।
पूछता है,"क्या मायने हैं मेरे ?
मैं क्यों हूँ यहाँ ?
मेरा औचित्य क्या है ?
बहुत हैं मुझसे और,
तो मेरा यहाँ काम क्या है ?"
मैं भी इन्हीं सवालों से,
अक्सर गुज़ुरता हूँ -
पर कहता कुछ नहीं ।
बस गर्दन झुकाए नीचे,
हर एक सवाल पे ।
हाथ आगे कर देता हूँ,
कुछ सीखने की चाह में ।
सोचता हूँ अक्सर -
कितना आसाँ होता !
जो ज़िन्दगी का भी,
कोई शब्कोश होता ।
शब्दों के बीच फंसी
खामोशी के जहाँ मायने मिलते ।
कोई पुल मिलता जो
इस खाई के
दोनों सिरों को जोड़ता ।
कितना आसान होता,
मैं पन्ने पलट कर ही,
सब कुछ पलट देता ।
 
उम्मीद है, आपको आपकी ज़िन्दगी का 'शब्दकोश' बहुत जल्दी मिले। :)
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