Sunday, February 23, 2014

शब्दकोश

जब भी गुज़रता हूँ  
किसी किताब से । 
हर दो कदम पे
किसी पन्ने के मोड़ पर ।
एक टोल प्लाज़ा जैसे, 
खड़ा रहता है एक शब्द । 
अपने मोटे चश्में से घूरे,
किसी सरकारी शिक्षक जैसे । 
पूछता है,"क्या मायने हैं मेरे ? 
मैं क्यों हूँ यहाँ ? 
मेरा औचित्य क्या है ?
बहुत हैं मुझसे और, 
तो मेरा यहाँ काम क्या है ?"
मैं भी इन्हीं सवालों से, 
अक्सर गुज़ुरता हूँ -
पर कहता कुछ नहीं । 
बस गर्दन झुकाए नीचे,
हर एक सवाल पे । 
हाथ आगे कर देता हूँ, 
कुछ सीखने की चाह में । 
सोचता हूँ अक्सर -
कितना आसाँ होता !
जो ज़िन्दगी का भी,
कोई शब्कोश होता । 
शब्दों के बीच फंसी 
खामोशी के जहाँ मायने मिलते । 
कोई पुल मिलता जो
इस खाई के 
दोनों सिरों को जोड़ता ।
कितना आसान होता, 
मैं पन्ने पलट कर ही, 
सब कुछ पलट देता । 
  

1 comment:

  1. उम्मीद है, आपको आपकी ज़िन्दगी का 'शब्दकोश' बहुत जल्दी मिले। :)

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