हौलो, खोखला । 
सुना है कभी ?
कैसा ऐको होता है ।
पहाड़ी के टॉप पे
देखा है कभी ?
कि जिसके आगे
कुछ नहीं होता ।
आवाज़ दी अगर,
तो होता है केवल ऐको ।
कितनी ही बार,
खुद को लेजाकर वहाँ
छोड़ आता हूँ ।
पर साथ चला आता है
मेरा ही ऐको ।
ख़ाली कमरे से,
कुछ कहा है कभी ?
कैसे पलट के
चले आते हैं सवाल।
ऐसे ही ये रात
रोज़ पलट के
चली आती है,
सवाल बनकर
एक खोखले से दिन का।
ये रात भी ,
एक ऐको है ।
रौशनी म्यूट होने पर  
रात की घंटी,
सुनी है कभी ?
कि जब कोई नहीं होता आस-पास।
तो ये मन के कान ,
अपनी ही कोई
आवाज़ सुनाते हैं ।
जो दिनभर कहकर,
ख़ाली हो गया हो -
उसे सुनाई पड़ता है
अपनी ही
अनकही बातों का ऐको ।
किसी ठहरे से पल ने
छुआ है कभी ?
जो पल -
घड़ी की सुइयों के
बीच से निकल लें ।
जो हों एक दम हलके।
न कोई एहसास ,
और न चाहत हो ।
ऐसे ही ख़ाली पल में,
तुम गिनना कभी,
अपनी ही
दबी साँसों का ऐको ।
कहीं कुछ ऐसा ही,
पढ़ा है कभी ?
जहाँ कोई ऐलान न हो ।
और न ही किसी ने,
कहा हो कुछ भी ।
ये जो बेमायने सा लिखा है -
ये भी ऐको है,
सुना है कभी ?
कैसा ऐको होता है ।
पहाड़ी के टॉप पे
देखा है कभी ?
कि जिसके आगे
कुछ नहीं होता ।
आवाज़ दी अगर,
तो होता है केवल ऐको ।
कितनी ही बार,
खुद को लेजाकर वहाँ
छोड़ आता हूँ ।
पर साथ चला आता है
मेरा ही ऐको ।
ख़ाली कमरे से,
कुछ कहा है कभी ?
कैसे पलट के
चले आते हैं सवाल।
ऐसे ही ये रात
रोज़ पलट के
चली आती है,
सवाल बनकर
एक खोखले से दिन का।
ये रात भी ,
एक ऐको है ।
रात की घंटी,
सुनी है कभी ?
कि जब कोई नहीं होता आस-पास।
तो ये मन के कान ,
अपनी ही कोई
आवाज़ सुनाते हैं ।
जो दिनभर कहकर,
ख़ाली हो गया हो -
उसे सुनाई पड़ता है
अपनी ही
अनकही बातों का ऐको ।
किसी ठहरे से पल ने
छुआ है कभी ?
जो पल -
घड़ी की सुइयों के
बीच से निकल लें ।
जो हों एक दम हलके।
न कोई एहसास ,
और न चाहत हो ।
ऐसे ही ख़ाली पल में,
तुम गिनना कभी,
अपनी ही
दबी साँसों का ऐको ।
कहीं कुछ ऐसा ही,
पढ़ा है कभी ?
जहाँ कोई ऐलान न हो ।
और न ही किसी ने,
कहा हो कुछ भी ।
ये जो बेमायने सा लिखा है -
ये भी ऐको है,
एक हौलो से मन का । 
 
ये अच्छा लग रहा है.. नए फॉर्मेट की तरह ।
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