Thursday, February 13, 2014

ऐको

हौलो, खोखला । 
सुना है कभी ?
कैसा ऐको होता है ।

पहाड़ी के टॉप पे 
देखा है कभी ?
कि जिसके आगे 
कुछ नहीं होता । 
आवाज़ दी अगर,
तो होता है केवल ऐको ।  
कितनी ही बार,
खुद को लेजाकर वहाँ
छोड़ आता हूँ । 
पर साथ चला आता है 
मेरा ही ऐको ।

ख़ाली कमरे से,
कुछ कहा है कभी ? 
कैसे पलट के  
चले आते हैं सवाल। 
ऐसे ही ये रात
रोज़ पलट के
चली आती है,
सवाल बनकर 
एक खोखले से दिन का। 
ये रात भी ,
एक ऐको है ।  

रौशनी म्यूट होने पर  
रात की घंटी,
सुनी है कभी ?
कि जब कोई नहीं होता आस-पास। 
तो ये मन के कान ,
अपनी ही कोई 
आवाज़ सुनाते हैं ।
जो दिनभर कहकर,
ख़ाली हो गया हो -
उसे सुनाई पड़ता है 
अपनी ही 
अनकही बातों का ऐको ।    


किसी ठहरे से पल ने 
छुआ है कभी ?
जो पल -
घड़ी की सुइयों के
बीच से निकल लें । 
जो हों एक दम हलके। 
न कोई एहसास ,
और न चाहत हो । 
ऐसे ही ख़ाली पल में, 
तुम गिनना कभी, 
अपनी ही
दबी साँसों का ऐको । 

कहीं कुछ ऐसा ही, 
पढ़ा है कभी ?
जहाँ कोई ऐलान न हो । 
और न ही किसी ने, 
कहा हो कुछ भी ।  
ये जो बेमायने सा लिखा है -
ये भी ऐको है, 
एक हौलो से मन का । 


1 comment:

  1. ये अच्छा लग रहा है.. नए फॉर्मेट की तरह ।

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