Sunday, March 30, 2014

गीला गीला पानी

जाने दो बादलों को
इनका क्या है ?
उड़ते उड़ते
एक दिन थककर
कुछ पानी, कुछ बर्फ़ बनकर
फिर यहीं लौट आएँगे  ।
और जो फिर भी न आए
तो मुझे भरोसा है
किसी पत्ते पर रखी एक बूँद में
सावन अब भी बचा है ।।





Saturday, March 29, 2014

रिमझिम गिरे सावन

इतनी ख़ामोशी से बरस जाता है ।
बूँद बूँद में कितना कह जाता है ।।

गिरे जो माटी पे, मलहम लगे
बदन पे गिरे तो रूआं जले
तुम भी जलाते, सहलाते मुझे
आओ तो आना जैसे सावन चले ।

छत पर बैठे, किसे बादल के संग
गाएँगे मल्हार हम होकर मलंग ।
और तभी, ऐसा हो जाए
चोंच में अपनी, तिनका दबाए
कोई चिड़िया विदेशी गुज़रे वहाँ से
रोक लेना उसे तुम ज़रा सा मना के
उसे सिम्फनी का कंडक्टर बनाकर
सात रंगों पे सारे सुरों को सजाकर
फिर झूमेंगे, बादल, तुम और मैं 
बस, भीड़ और नौकरी से परे । 

नीचे शहर को हम देखा करेंगे 
जलती आहों पे बरसा करेंगे । 
और संग बहा लाएँगे अपने 
वो भूली सी कश्ती  
छोड़ आया जिसे कोई 
बचपन की गली में 
या भटकाती जिसे हो 
इस शहर की सड़कें 
गड्ढों में इसके, डूबने न देंगे। 

वहीं दौड़ती किसी कार के पीछे 
बंद करें हों जिसने मौसम के शीशे 
हर ऐसी खिड़की खटकाते चलेंगे  
गीले हाथों से नज़्में सुनाते चलेंगे ।

अगर न आई तुम
तो ये सावन बेचारा 
सोचो झूलेगा लेकर
फिर किसका सहारा ?
होता अगर मैं कोई कालिदास 
किसी मेघदूत से करता अरदास 
भीगता है कोई इन बारिशों के परे, 
आओ तो आना जैसे सावन चले । 

Wednesday, March 26, 2014

उड़ान

ना ख़्वाबों में अटके
ना हसरतों पे उड़े
आसमां समेटे परों में
रोज़ निकलते हैं
किराए की छतों से
फिर लौट आने
उसी आँगन में -
चुगने मुट्ठी भर नींदें, 
जिन्हें सपनों के जाल के पीछे 
छिड़क जाता है कोई हर रोज़। 
और करवटों पर लादे 
अपने हिस्से की रात का बोझ
किसी पहचानी सी सरहद पे
बैठे मिलते हैं देर तलक 
हिसाब लगाने,
अपनी रेंगती उड़ान का ।  
फिर हर सुबह 
गरम चाय के अलार्म को
देकर सलामी, उड़ पड़ते हैं 
जीवन के सैनानी, ये बाशिंदे, 
मोहल्ले के कुछ,
मुजाहिर परिंदें ।

Friday, March 21, 2014

बस यूँ हीं …

सफ़र तन्हा था नहीं ,
क्यों मज़िल अकेली लगती है ?
ज़िन्दगी जब भी मिली ,
तुझ बिन पहेली लगती है ।
जिस वक़्त को हमने थामा था, 
उमीदों के उन हाथों से । 
वो कब का जी के गुज़र गया, 
बस उम्रों का निशाँ बाकी है । 
ज़माने के हर शोर पे हमने,
ज़िन्दगी को ज़ोर उछाला था । 
अब आपस के सन्नाटे में,
यूँ डूब के जीना भारी है ।  
ख़्वाबों की दो गलियों नें 
शहर बसाए थे कितने !
आशियाने बने मगर,
क्यों वीरानी सी छाई है ?
हर बात जो तुमने समझी थी ,
हर चुप जो मैंने जानी थी ,
वो कहा सुना सब बीत गया। 
जब दी दस्तक ख़ामोशी ने -
क्यों आवाज़ तुम्हारी आई है ?

Sunday, March 9, 2014

मेसेज वाया मौसम

बर्फ़ में घुली हुई,
धूप जब गलने लगे । 
मौसम की जमी हुई,
साँस जब चलने लगे ।
शाख पर खिली हो जब ,
किलकारी पहले पत्ते की ।
नर्म हाथों से छूना तुम ,
एक आवाज़ मेरी भी । 

पूरब से चली है जो,
सूरज के पीले आँचल में ।
परिंदों ने उठाई वो,
डोली अपने हाथों से ।
घर के किसी आँगन में,
घरोंदे जब उगने लगे ।
एक तिनका चुरा लेना तुम,
एक आशियाना अपना बने ।

देखा था कल बाग में,
सूखे, ठूँठ पेड़ पर ।
बर्फ़ थी बिझी जहाँ,
वहीं से दो इंच ऊपर ।
जब एक राॅबिन1 फड़का था 
तब देख के ऐसा लगता था ,
सफ़ेद चादर ओढ़ा पेड़ ,
कोमा से बाहर निकला था ।
यूँ छू दिया था मौसम की ,
एक ज़िंदा गरम साँस ने । 
भरा था तुमने जैसे कभी ,
मुझको अपनी पनाह में । 

आस्मां है अस्तबल,
जिन सफ़ेद घोड़ों का ।
इंतज़ार है उन्हें भी
मौसम की नई फ़सल का ।
दिखेगी हरी घांस जब,
दौड़ कर ज़मीन पे आएँगे । 
लादे अपनी पीठ पे ,
संग सूरज को खींच लाएँगे ।
आवाज़ गिरे जो कानों में,
आस्मां से गड़गड़ाहट की ।
कुछ बूंदें पैग़ाम देंगीं तुम्हें,
उस आने वाली प्यास की ।। 
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1- एक लाल रंग का पक्षी 

Saturday, March 1, 2014

दो परछाइयाँ

दोनों पब से ऐसे निकले जैसे वीकेंड के दो दिन निकल रहे हों । होने को ये दोनों कोई भी हो सकते थे । शहर का यही फ़ायदा है । आप खुद में खोने से पहले , भीड़ में खोने लगते हैं । खोना चाहते हैं । उस समय वहाँ बारिश नहीं हो रही थी । पर ऐसा मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए । इससे माहौल और रोमानी हो जाता है । दोनों फुटपाथ पर ऐसे एक होकर चलने लगे कि ऊपर से देढ़ धड़ और नीचे केवल दो हाथ ही दिखाई पड़ते थे । ग्रोथ रेट में कहीं पीछे छूट चुके इन फुटपाथों पर निकले गड्ढे, कभी-कभी उनको अलग ज़रूर कर देते थे । विकास के लिए ऐसी तड़प शायद ही किसी के मन में जागी होगी, जैसी उन अलग हुए पलों में उसके मन में उमड़ उठती  थी। 
चलते समय दोनों कह कम रहे थे , सुनते ज़्यादा थे । उनके चलने के अंदाज़ से ये अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि अब शराब सर से उतरकर पैरों में चढ़ गई है । एक दूसरे में लड़खड़ाते और खुद में संभलते वो कुछ दूर जाकर, आधी भुझी लाइट में जलते एक बस स्टाप पर जाकर रुक गए । अब दोनों कुछ नहीं कह रहे थे । आस पास वाले बहुत कुछ सुन रहे थे । थोड़ी ही देर में उसकी आँखें पानी से भर गईं । आँसू ही होंगे । शायद जलती शाम में कुछ गीली लकड़ियाँ डाल थी किसी ने । ये देखकर उसने पहले मुँह फेरा । मुँह फ़ेरते समय भी उसका धड़ और बाकी पूरा शरीर पहले जैसा उसकी तरफ़ ही था । फिर धीरे से अपनी गर्दन पे लिपटा स्कार्फ़ उसके सफ़ेद हाथों पर थमा दिया । स्कार्फ़ में लगा उसका परफ्यूम था या उसके गीले बालों की नमी । चेहरे पे रखते ही उसका पुराना चेहरा पुछ गया । आधी जलती लाइट में , दोनों आँखें अभी भी चमक रही थी । पर स्कार्फ़ के नीचे से निकला ये चेहरा, पुराने से कुछ अलग दिखाई पड़ता था । दोनों कुछ देर और वहीं खड़े रहे ।  लोग बस चार्ट देखने के बहाने उन्हें देखते रहे । उस वक़्त उन दोनों के बीच इतनी जगह दिखने लगी थी कि सारा शहर उसमें समा जाना चाहता था । 
आखिर, वक़्त से पीछे छूट चुकी वो बस आ गई । उसने फिर मुँह फ़ेरा । अबकी उसका धड़ भी गर्दन के साथ ही घूम गया । बस, रात के जैसे ही ख़ाली थी ।  फिर भी न जाने किसको पीछे छोड़ने की जल्दी में वो बस के दरवाज़े से तुरंत अंदर चली गई । खिड़की वाली सीट पर ही बैठी पर खिड़की से थोड़ा अलग होकर । बाहर से, वो खिड़की की सलाखों में उसका चेहरा तलाशने लगा । उसके पीछे खड़े लोग उन दोनों का चेहरा तलाशने लगे ।  दोनों एक दूसरे को सलाख़ों के पीछे से देख रहे थे । पता लगाना मुश्किल था वहाँ कौन क्या देख़ना चाहता था । 
अपने धुएँ से, दिन का गुस्सा, पीछे को निकालती हुई बस आगे को निकलने लगी । चारों पहिए चार कहाँर जैसे, ज़रा डागमागे के उठे । ऐसा लगा ये बस फिर से फूटपाथ पर गुज़रती हुई दो और जाने ले लेगी ।  वो भी अब बस की तरफ़ ही चल पड़ा । कदमों की चाल से पता चल रहा था कि नशा अब टूट गया था । उसी के गिरे टुकड़ों से खुद को बचाता हुआ वो आगे चलता रहा । दूर से अब एक धड़ और दो हाथ ही दिखाई पड़ते थे । बस स्टाप की अब पूरी तरह से जल रही लाईट में, दो परछाइयाँ साफ़ दिख रही थी । आस पास के लोगों के चेहरे धुँधले होने लगे थे । एक मन्नत जैसे, कोई वो स्कार्फ़ वहीं पास लगी रेलिंग पर बाँध गया था । बस की तरफ़ चलती हवा में वो अकेला वहाँ बँधा , हवा में हाथ हिलाता रहा । किसी को आते हुए देख कर या किसी जाते हुए के लिए । अब बारिश वाकई होने लगी थी । पर माहौल रुमानी नहीं लग रहा था ।