Wednesday, March 26, 2014

उड़ान

ना ख़्वाबों में अटके
ना हसरतों पे उड़े
आसमां समेटे परों में
रोज़ निकलते हैं
किराए की छतों से
फिर लौट आने
उसी आँगन में -
चुगने मुट्ठी भर नींदें, 
जिन्हें सपनों के जाल के पीछे 
छिड़क जाता है कोई हर रोज़। 
और करवटों पर लादे 
अपने हिस्से की रात का बोझ
किसी पहचानी सी सरहद पे
बैठे मिलते हैं देर तलक 
हिसाब लगाने,
अपनी रेंगती उड़ान का ।  
फिर हर सुबह 
गरम चाय के अलार्म को
देकर सलामी, उड़ पड़ते हैं 
जीवन के सैनानी, ये बाशिंदे, 
मोहल्ले के कुछ,
मुजाहिर परिंदें ।

1 comment:

  1. बंधी उड़ान के परिंदों की किसी पल ठौर पर ठिठकने की आकांक्षा और गति की आपाधापी को बखूबी दर्शाया आपने हर पल चलती जिंदगी का एक पल भी थिर नहीं

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