Thursday, April 24, 2014

ऐसे ही लिख दी

गीली गीली मिट्टी पे,
सूखे मन के पत्ते पर,
छोटी छोटी बूँदों में,
लम्बे गहरे साए हैं ।
ठंडे सीले झोकों में,
तपते जलते रहते हैं,
आधे आधे लम्हों से,
सदियों के सताए हैं ।

खोई खोई यादों के, 
काले चिट्टे बादल भी, 
आड़े तिरछे राहों से,
प्यास बुझाने आए हैं ।


हल्की पीली चादर पे, 
सोई सोई छाँव ने,
उड़ते उड़ते भँवरों संग, 
ख़्वाब कई खिलाएँ हैं । 
आधा आधा चंदा है,
अधजगे आकाश में,
पूरा पूरा जलकर भी,
ख़्वाब कई बचाएँ हैं ।

जलती बुझती सड़कों पे,
उजली उजली रातें हैं,
आती जाती राहों में,
ठहरी सिमटी बाहें
 हैं ।
सुनसान सा शहर है,
तेरी मेरी बातों में ।
गीले सूखे रहते हैं,
सावन की बरसातों में ।


Monday, April 21, 2014

नोबल

यूँ भी होता है अक्सर - 
कभी मौसम का कोट पहने 
समय की दहलीज़ लाँघकर 
एक खुश्बू की उँगली थामे, 
निकल पड़ता हूँ किसी ख्याल में ।
फिर याद के किसी नुक्कड़ पर,
कोई यार पुराना स्कूल का
मिलता है गेंद हाथ में लिए
साइकिल की पीछली सीट पे । 
और ये शहर अंजाना फिर से
बन जाता है बचपन की गली ।

कार के रेडियो से जब भी    
सुनाई देता है कोई गाना  
( गुज़रे ज़माने का, सुना सुनाया )  
पहिए, अपने आप मुड़कर
गुज़रने लगते हैं 
कुछ मोड़ी हुई राहों से, 
कुछ छोड़ी हुई सड़कों पर । 
बारिश की बूँदों में घुला
गीत का एक एक लफ्ज़ जैसे 
कोई पुराना स्पर्श बनकर
कई हाथों से छू जाता है
और याद दिलाता है मुझे 
उन बीते लम्हों की छुअन का । 

जब भी देखता हूँ
इवनिंग वॉक पर
ज़िन्दगी की शाम पर खड़े
उन बुज़ुर्ग जोड़ों को
उनके कदमों के जवां निशानों में
देखता हूँ हम दोनों को । 
ऐसे ही थामे अपनी अपनी उमर
चल रहे हैं हम किसी पगडंडी पर 
जहाँ समय बहुत धीरे बह रहा है 
वहीं थोड़ी देर रूक कर  
पास बैठी गौरैया को 
तुम सुना रही हो शिकायतें 
ये जानकर भी कि 
उसके घोंसले तक जाने से पहले 
जान जाएँगी ये बातें सारी
गिलहरियाँ, पत्ते और फ़ुलवारी ।

कल पढ़ा था अख़बार में,
कुछ साईंसदान हैं इंतज़ार में 
वक़्त को कसने की चाल में
हैं लगे टाईम मशीन के ईजाद में
या नोबेल पाने की फ़िराक़ में ।

मैं यूँहीं हर रोज़ बैठे बिठाए 
समय में उड़ता फिरता हूँ । 
मैं कब से अपने नोबल के
इंतज़ार में अकेला बैठा हूँ ।
कोई मेरी बात उन तक पहुंचा दो । 
कोई मुझे मेरा नोबल दिला दो ।

Saturday, April 12, 2014

सुसाईड नोट

कुछ तो बात रही होगी
जो खुद से न कही होगी ।
आती जाती हर साँस की
हर करवट को चुभी होगी ।


शाम थी,
वक़्त था,
शायद साढ़े सात का।
वो थी,
मैं था,
मौसम था बरसात का।

कल देखा था उसे आँगन से,
मंडराती मन की उलझन में ।
बिल्डिंग की ऊपरी माले से,
थी घंटों लटकी हुई सी।
बैठी रही वो देर तलक ,
थी कुछ उखड़ी हुई सी । 

इस तरह वो नीचे 
झाँकती थी बार बार 
किसी वक़्त की आमद का
था जैसे उसको इंतज़ार 
कुछ सोच कर टेरिस पर
फिर टहल आती थी ।
इंतज़ार में थी किसे के
या यूँ मन बहलाती थी ?
कुछ तो था, जो कहना था
जो उसने भी न समझा था । 

फिर ना जाने मन में क्या आया
या देखा उसने कोई साया
या किसी नाऊँमीदी के झोंकें ने
झाँसे में अपने फुसलाया ।
ऊँगली पकड़ किसी सपने की
नीचे कूदी -
जैसे बाहों में किसी अपने की।

चुप चाप हवा से कटते हुए ,
मंज़िल दर मंज़िल मरते हुए
घूमती गिरती जाती थी
नीचे सहमी सड़क पे ।
सांस को हलक में रोके हुए

मैं दुआ में था उस झोंके के
जो ले जाए इसे फिर फलक पे ।

तभी एक तेज़ चलती कार से
टकरा गई बेचारी रफ़्तार से
फिर टूट के गिरी उसकी
कांच की खिड़की पर ।
वो
 बारिश की अटकी बूँद थी
जली सावन की सिगड़ी पर । 

फिर कार चलाने वाले ने 
बेहरहमी से उसे पोंछ दिया 
इस शहर ने फिर एक बार
एक सुसाईड नोट खो दिया ।


एक मौत से अनजान सी ,
वो शाम थी शमशान सी । 
कुछ तो बात रही होगी 
जो उस नोट ने कही होगी…