Monday, April 21, 2014

नोबल

यूँ भी होता है अक्सर - 
कभी मौसम का कोट पहने 
समय की दहलीज़ लाँघकर 
एक खुश्बू की उँगली थामे, 
निकल पड़ता हूँ किसी ख्याल में ।
फिर याद के किसी नुक्कड़ पर,
कोई यार पुराना स्कूल का
मिलता है गेंद हाथ में लिए
साइकिल की पीछली सीट पे । 
और ये शहर अंजाना फिर से
बन जाता है बचपन की गली ।

कार के रेडियो से जब भी    
सुनाई देता है कोई गाना  
( गुज़रे ज़माने का, सुना सुनाया )  
पहिए, अपने आप मुड़कर
गुज़रने लगते हैं 
कुछ मोड़ी हुई राहों से, 
कुछ छोड़ी हुई सड़कों पर । 
बारिश की बूँदों में घुला
गीत का एक एक लफ्ज़ जैसे 
कोई पुराना स्पर्श बनकर
कई हाथों से छू जाता है
और याद दिलाता है मुझे 
उन बीते लम्हों की छुअन का । 

जब भी देखता हूँ
इवनिंग वॉक पर
ज़िन्दगी की शाम पर खड़े
उन बुज़ुर्ग जोड़ों को
उनके कदमों के जवां निशानों में
देखता हूँ हम दोनों को । 
ऐसे ही थामे अपनी अपनी उमर
चल रहे हैं हम किसी पगडंडी पर 
जहाँ समय बहुत धीरे बह रहा है 
वहीं थोड़ी देर रूक कर  
पास बैठी गौरैया को 
तुम सुना रही हो शिकायतें 
ये जानकर भी कि 
उसके घोंसले तक जाने से पहले 
जान जाएँगी ये बातें सारी
गिलहरियाँ, पत्ते और फ़ुलवारी ।

कल पढ़ा था अख़बार में,
कुछ साईंसदान हैं इंतज़ार में 
वक़्त को कसने की चाल में
हैं लगे टाईम मशीन के ईजाद में
या नोबेल पाने की फ़िराक़ में ।

मैं यूँहीं हर रोज़ बैठे बिठाए 
समय में उड़ता फिरता हूँ । 
मैं कब से अपने नोबल के
इंतज़ार में अकेला बैठा हूँ ।
कोई मेरी बात उन तक पहुंचा दो । 
कोई मुझे मेरा नोबल दिला दो ।

1 comment:

  1. समझ नहीं पाया व्यक्तिगत तौर पर लिखते हुए फॉर्मल क्यूँ हो गये अपने नोबल के जरा और करीब हो जाते चंद ऐहसासात की शिद्द्त बढ़ती। (यह व्यक्तिगत सलाह थी) रचना के तौर पर टुकड़े टुकड़े जीवन बटोर कर उनके बीच से रचियता को खोजना दुरूह है लेकिन आप हमेशा उसे निकाल लाते हैं। सुंदर है मोहक है (कुछ और पर्सनल होंगे तो मुझे भी अच्छा लगेगा नोबल को भी) माने फिर से एक प्रेम कविता की प्रतीक्षा है :)

    ReplyDelete