Wednesday, June 25, 2014

मैं कैसे चला जाता

चला जाता मैं कब का 
उन दो कुर्सियों ने गर
कई हाथों से मुझको 
रोका ना होता ।

एक दिन जब
सुबह उठाने में
छलक गई थी चाय
तुमने घबराकर कैसे
अपने शीतल स्पर्श का
बर्नोल लगाया था मुझे ।
कुछ छाले,
जो चाय के छींटों से
जागने लगे थे
वो थामकर
ऊँगली तुम्हारी,
संग मेरे फिर सो गए ।
आज फर्श पर
उस गिरी चाय के
सूखे धब्बे,
बनकर आँसू ,
भरी आँखों से
ताक रहे हैं मुझे ।
आज फिर से,
कुछ छाले
जाग रहे हैं मुझमें 
इन छालों की नींद
तुम्हें देकर,
तुम ही बताओ,
मैं कैसे चला जाता ।

छुट्टी के दिन थे जब
तुम फैलीं थी सुबह सी
मैं दोपहर सा लेटा था
जहाँ खिड़की पे हमारी
एक घोंसला रहता था ।
एक चिड़िया भी थी
जो चूड़ी पर तुम्हारी,
अक्सर झूला करती थी ।
वो अपने पँखों पर लिखकर
उड़ानों के किस्से
उन्हें घर आते जाते,
गिरा जाती थी नीचे ।
जिन्हें तुम दौड़ के
अपनी डायरी में
भर लिया करती थी ।
पूरे अड़तीस दिन हुए
वो चिड़िया तब से
आई नहीं मुझसे मिलने ।
और वो डायरी भी
हर चीज़ की तरह 
ख़ाली पड़ी है  ।
कभी कभी,
एक तिनका आता है बस
सूखे घोंसले से उड़कर
टूटी चूड़ियों को देखकर,
फिर मायूस लौट जाता है ।
कांच के उन टुकड़ों से
चमकती,चुभती यादों को -
उन पर से होकर गुज़री
कई ज़ख़्मी उड़ानों को -
अकेला तड़पता छोड़कर ,
तुम ही बताओ
मैं कैसे चला जाता ।

छत पर बैठे दोनों
दो कुर्सियों के संग
हम चारों के बीच
मैंने आस्मां बिछाया था ।
जिस पर तुम नाज़ुक 
तारे टाँकती थी ।
कितनी धूप लगाई थी
पक्का रंग चढ़ाने में ।
तुम रात रात जागी थी
बादलों को हटाने में । 
जो आते थे उड़ते उड़ते
हमारे तारों को चुगने ।
मैं वक़्त देखकर,
चाँद खसकाता था । 
तुम पलकों से चुनकर,
ओंस बटोरती थी । 

वो सुबह लाने की ज़िद थी
या हमारे आस्मां की हद थी ।
आह भरी थी तुमने,
या कोई हवा चली थी ।
या मैंने ही कोई सिरा,
ज़रा कस के पकड़ा था ।
आँख खुली तो आस्मां
दो हिस्सों में पड़ा था ।
ख्वाहिशों का क़सूर था  
तारों को टूटना ज़रूर था ।
नुकीली किसी बात से
उस सुबह का रंग सूर्ख था ।
तुम एक टुकड़ा लिए
नई उड़ान तलाशने निकल गई।
मैं अपना हिस्सा लिए
पुरानी ज़मीन ढूँढने बैठ गया ।
और वो दो कुर्सियाँ -
ब्लैक होल सी
अंदर किए ज़ब्त
वो सारा गुज़रा वक़्त ,
वैसे ही, वहीं-
आज भी बैठीं हैं ।
मैं उठकर जाना चाहता हूँ
वो बार-बार, 
हर बार, मुझे
अपने अंदर खींच लेती है ।
चला जाता मैं कब का 
उन दो कुर्सियों ने गर
कई हाथों से मुझको 
रोका ना होता ।

छोड़कर खुद को
इतने टुकड़ों में तुम्हारे पास
तुम ही बताओ,
मैं कैसे चला जाता ।

Friday, June 20, 2014

धूम्रपान

कई बार,
मन करता है,
फँसा के सिगरेट
दो उँगलियों में
सटा के होठों से
चुप करा दूँ 
वो सारे खयाल 
जो धुएँ के छल्लों में 
निकलते हैं सीने से ।
हर बार,
सिगरेट बुझाता हूँ
कुछ लम्हों की ऐश, मगर 
रह ही जाती है
उँगलियों पर ।
चाहतों के निकोटीन में
नशा बहुत है ,
पर इसके कैंसर से
मौत नहीं आती ।
हाँ, दवा ज़रूर 
इसकी मगर 
अक्सर जानलेवा होती है । 

Sunday, June 15, 2014

एक ख़त

डिअर,
कल फ़ोन रखते समय तुमने कहा था कि मुझसे मिलने के बाद, तुम अपने अंदर कुछ नया महसूस करने लगे हो । तुम्हारे लिए मैं एक नया जीवन बनकर आई हूँ । उस वक़्त ये सुनकर अच्छा लगा था । और शायद तुम भी मुझसे कुछ ऐसा ही सुनने की आशा कर रहे थे । पर जो मेरे मन में है, उस समय कहना ठीक नहीं लगा । इसलिए अब ख़त लिख रही हूँ ।
मैं चाहती हूँ, तुम मेरे जीवन में सदा एक मौत बनकर रहना । पढ़ने में अजीब लगे, पर तुम्हें लेकर मेरी बस एक यही ख्वाईश है ।
जीवन कितना ही नया हो, एक दिन शरीर के ढीले पड़ जाने पर उसे छोड़ देना ही उसकी नियती है । मौत, पर हमेशा साथ रहती है । तब भी, जब जीवन रहता है । सदा मौजूद होकर भी, वो अपने होने का एहसास कभी नहीं थोपती । जैसे तुम कभी अपने मैं को मुझ पर हावी नहीं होने दोगे । कोई कितना ही मन भटकाए, मौत पर से विश्वास नहीं हिला सकता । जिस रिश्ते की बुनियाद ही ऐसे विश्वास पर टिकी हो, उसे फिर किसका डर ? मौत जीवन का सत्य है । उसका विपरीत नहीं । मैं भी तुम्हें अपना सत्य मानकर, तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ । वो सत्य जो किसी नज़रिए का मोहताज न हो । जीवन के समय से हार जाने पर, तुम मेरा मौत बनकर साथ देना । अगर ऐसा हुआ तो फिर मुझे इस जीवन में किसी का डर नहीं । मौत का भी नहीं ।

तुम्हारा,
नव जीवन  

Saturday, June 14, 2014

बहने दे

ठहर के कुछ देर
बादलों पे,
देख ज़रा -
आस्मां पे ज़मीन
चलती है कैसे ?
रह जाते हैं 
जो निशाँ,
सफ़र के
क़दमों पे ।
राह खोने पे,
मिल जाते हैं कैसे ?

'गर गुज़रो
सावन की अँधेरी
गलियों से,
तो इतना 
याद रखना ।
कुछ बूँदों का 
क़र्ज़
अब भी,
बाकी है तुम पे ।

जो सैर करता
मिल जाए कोई
एक धनक अधूरा -
तुम सा । 
दो पल रुकना
मिलना उससे, 
छोड़कर सारे सिरे । 
संग भर लेना,
कलम में
खुशबू तमाम
रंगों की ।
जो टूट कर 
बूँदों से निकलें 
और फ़िज़ाओं में बहें 
फिर लौटकर आना 
उन्हीं बदरंग से
चंद पन्नों पर। 
और याद कर,
लिखना फिर,
एक वो
भूला हुआ नाम ।
गीले कलम की 
नई छुअन से 
शायद इस बार,
फिर से लाल हो सके -
वो मुरझाया हुआ गुलाब। 

कुछ अधूरी
बातों का कोहरा,
पीछा तुम्हारा 
करने लगे ।
चला हुआ
हर रास्ता, 
फिर होकर तुमसे
गुज़रने लगे ।
और सुरंग 
किसी नज़्म की
आए न जब नज़र ।
यादों पे तुम अपनी,
सावन सा फ़ैलकर।
उमरों की ज़मीन पर
लम्हों सा गिर जाना ।
फट निकले जो आबशार
संग उनके बह जाना ।
बस काटकर कुछ मिट्टी,
एक आसमान सजाना है ।
अपने ही सावन में फिर, 
घुलकर डूब जाना हैं ।

ठहर के कुछ देर
बादलों पे
देख ज़रा -
आस्मां पे ज़मीन
चलती है कैसे ?
बो जाते हैं
जो निशान 
सफर पे
क़दमों से ।
मौसम बदलने पर,
उग आते हैं कैसे ?