कई बार,
मन करता है,
मन करता है,
फँसा के सिगरेट
दो उँगलियों में
दो उँगलियों में
सटा के होठों से
चुप करा दूँ 
वो सारे खयाल 
जो धुएँ के छल्लों में 
निकलते हैं सीने से ।
हर बार,
सिगरेट बुझाता हूँ
कुछ लम्हों की ऐश, मगर
हर बार,
सिगरेट बुझाता हूँ
कुछ लम्हों की ऐश, मगर
रह ही जाती है
उँगलियों पर ।
चाहतों के निकोटीन में
नशा बहुत है ,
पर इसके कैंसर से
मौत नहीं आती ।
हाँ, दवा ज़रूर
इसकी मगर
अक्सर जानलेवा होती है ।
उँगलियों पर ।
चाहतों के निकोटीन में
नशा बहुत है ,
पर इसके कैंसर से
मौत नहीं आती ।
हाँ, दवा ज़रूर
इसकी मगर
अक्सर जानलेवा होती है ।
 
ये वैधानिक चेतावनी ज़रा और लम्बी होती तो बहुत अच्छा होता.. कोई नज़्म भी इसके धुंए में उड़ती तो और अच्छा लगता । :)
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती के साथ छोटे से लम्हे में एक सूफियाना इबारत सी किसी सूफ़ी के साथ जीवन के मसाइलात को चूमती निकल गयी हो जैसे। इस सुंदर रचना को पढ़ना ही एक अनुभव है। सहमत नहीं आँचल से, कविता का छोटा होना इसका मूल सौंदर्य है। आपने नयेपन से जिस जबरदस्त ऊँचाई पर छलांग लगाई है वह अतिप्रशंस्नीय है अद्भुद है। सच कहूँ तो स्वयं लेखक को पढ़ने के लिए ऐसी ही सुंदर रचनाओं की तलाश रहती है। बधाई .........
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