था वक़्त दोपहर का,
और साथ रहगुज़र का।
दूर से देखा,
चली आ रही थी वो गुलबदन।
जो पास आई,
तो टकरा गई,
निगाह उनसे दफ़तन*। 
कुछ हौसले से हमने देखा,
जो उनके हसीन चेहरे को।
लजा के कर ली निगाह नीचे,
लजा के कर ली निगाह नीचे,
और देखने लगीं मेरे क़दमों को ।
बस मुलाक़ात इतनी सी थी,
आगे कुछ और नहीं।
पर ये पैर हैं मेरे कि,
तब से कुछ सुनते नहीं।
दो पल में उन दो नज़रों का,
हो गया वो असर।
इतरा के चलते हैं तब से,
हवा से दो इंच ऊपर।।
बस मुलाक़ात इतनी सी थी,
आगे कुछ और नहीं।
पर ये पैर हैं मेरे कि,
तब से कुछ सुनते नहीं।
दो पल में उन दो नज़रों का,
हो गया वो असर।
इतरा के चलते हैं तब से,
हवा से दो इंच ऊपर।।
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*अचानक 
Acha laga!!!
ReplyDeletebahut badiya
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