Wednesday, May 22, 2013

सड़कें

खाली रात सी, काली सड़कें। 
शबे-इंतज़ार सी, ताकती सड़कें।
कुछ अलसाई, कुछ दौड़ती, 
सुबह को सैर लगाती सड़कें।

बारिश के जूतों पर,
बचपन को उछालती सड़कें।
आवारगी के हर उस मोड़ पर,
जवानी को भटकाती सड़कें।
बंदिशों से अनजान प्यार को -
राह दिखाती, भगाती सड़कें।
चार काँधों के आठ पाँवों को -
कंधा देती, ले जाती सड़कें। 

तेज़ धूप में, बीच दोपहरी-

जादू दिखाती सड़कें।  
बारिश में बनकर नदी,
नाव चलाती सड़कें। 
गिरे पत्तों की चादर ओढ़े,
सोती जागती सड़कें।
कुल्फी वाले के आने पर,
टन - टन बजती सड़कें।


घर से फेंके कचड़े का 
बोझ उठाती सड़के।
घर से फेंके बच्चों को,
पालती पोस्ती सड़कें।
गाँव से आए भटकों को,
और भटकाती सड़कें।
अंजानो के इस शहर में,
जानी पहचानी सड़कें।
बिकते-बचते मजदूरों का, 
बाज़ार बन जाती सड़कें
ख़ानाबदोश आवारों का,
आशियाना हैं ये सड़कें।  

किसी अपने सी,
घर से निकल कर -
फिर न आती सड़कें। 
थोड़ी रफ़्तार जो पकड़ी तो ,
टांग अड़ाती, गिराती सड़कें।
कुछ को रोकती, आँख दिखाती,
फिर अपने संग ले जाती सड़कें।

यादों की गलियों में,
ऐसी कितनी सड़कों से हो आया हूँ।
ऐसी कितनी सड़कों को,
कुछ सड़कों के लिए छोड़ आया हूँ। 



1 comment:

  1. आह , इसे कहते हें कविता और कविता से होने वाली तृप्ति ! उम्दा !

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