Monday, February 10, 2014

बिना मीटर की ग़ज़ल - ७

चल पड़ना फिर वहीं लौट आने के लिए ,
मंज़िलें बदलना रास्ता पहचानने के लिए ।१।

यूँ गुज़री हर घड़ी कि गुज़रने से पहले ,
फ़क्त निशां भी ना छोड़ा मिटाने के लिए ।२।

कभी बँध गए थे पैरों में कुछ रास्तों के साए ,
कुछ रह गए थे मोड़ पर घुट जाने के लिए ।३।
   
दिन का भार पीठ पे लादे भटकते रहे हम,
अब करवट कौन बदले रात बढ़ाने के लिए ।४।

दिसंबर की हवा में ये कैसी है नमी ,
राज़ भी यहाँ छुपता नहीं बताने के लिए ।५।

राख में अब तलक बची है रूह की महक, 
ख्वाईश फिर जली एक तारा बुझाने के लिए ।६।

ख़त मेरा पुराना शायद फिर पलटा उन्होंने 
एक नाम पढ़ा फिर से भूल जाने के लिए ।७।

चुप चाप हर साँस को सुलाया था हमने , 
एक ख्वाब जगाया रातों ने फिर सताने के लिए ।८।

हर आरज़ू से बचना खुद को बचाने के लिए  ,
हर आह से बचे आखिर में जल जाने के लिए ।९

1 comment:

  1. अपनी ग़ज़लों की किताब छपवाने के लिए तैयार हो जाइए, शायर साहब :)

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