Friday, February 14, 2014

ये रातें नई पुरानी

रातें टपकती है,
आसमां की छत से ।
नींदें छपकती है,
पलकों पे कब से । 
मन के तकिए पे,
एक आवाज़ सो जाती है । 
करवटों के बीच में
जाने कहाँ खो जाती है । 
रौशनी के सोने
और जागने से पहले । 
यादों में उगते हैं
कितने अँधेरे !
हवा में लिपटा
एक साया गुज़र जाता है । 
साँसों के बीच का
सन्नाटा ठहर जाता है । 
हर धड़कन को रोज़
एक ख्वाब को ढोना है । 
फिर मनाना खुद को ,
जो होना है वही होना है ।
कोई तो बात होगी ,
जो मन और ज़ुबान 
के बीच से निकल जाएगी । 
कोई तो रात होगी जिसकी,
ढले बिना ही सहर आएगी ।
तारों की गंगा में,
उतरे बिना ही ।
ये रात कैसे पार हो,
डूबे बिना ही ?
बेख़बर रातें अक्सर,
यूँही बरस जाती है । 
जब सपने लिए नींदें,
पलकों से सरक जाती है ।


2 comments:

  1. वाह.. क्या बात है ! बेहतरीन :)

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  2. कोई तुलना नहीं लेकिन क्योंकि व्यक्तिगत रूप से यह शैली अधिक पसंद है इसलिये कहूंगा ...............अतुलनीय

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