Friday, February 21, 2014

जूठन

मेरे खयाल बासी 
और शब्द जूठे हैं ।
इन्हें बेच दो -
शहर के सेकंड हैण्ड मार्केट में ।
शब्द ज़रिया नहीं ज़ंजीर हैं ।
इनके टूटने में सुनो कभी ,
जकड़ी हुई किलकारियों को । 
ये किसके शब्द हैं जहाँ ,
मेरी भावनाएँ गिरवी पड़ी है ?
किसी सरकारी ज्ञापन जैसे
हमेशा घूम के चले आते हैं -
ये शब्द
मुझे याद दिलाने किसी 
उधार माँगी हुई सोच का ।
पर्चे की फोटोकाॅपी जैसे,
बाँट गया है कोई इन्हें ।
भी ढूँढना तुम इनमें,
अपने थके हुए चहरे ।
जिन्हें अपने ख़यालों की 
काली स्याही से कोई ,
पहले ही लीप गया है ।

पोस्टस्क्रिप्ट :

विचारों से बाँझ हुआ,
फिर से पाता हूँ खुद को,
किराए की एक कोख़ के पास खड़ा । 
जहाँ किसी दूसरे के लहू (शब्द) में 
लिपटा हुआ मेरा एक ख़याल, 
रोता हुआ जन्म ले रहा है । 

1 comment:

  1. बहुत गहरा लिखा है । क्या बात !

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