Monday, February 24, 2014

फिशिंग इन ट्रबल्ड वाटर्स

अपनी असुरक्षायों और
अंतरविरोधों के तालाब में
पाँव डुबाया मैं ,
एक ख्याल का काँटा डाले
कई आस लिए बैठा था ।
कांटे में फंसाकर लम्हें
फेंके थे कुछ तालाब में
वक़्त का भवँर पैरों पर
चढ़ता उतरता रहा ।
कैफ़ियत के ग़ुबार में 
साँसों का शोर छुपाता
तजुर्बे के किनारे
शान्त मैं बैठा रहा। 
और फिर कुछ देर में ही ,
एक हलचल सी अंदर हुई
जैसे कोई डंडी पकड़कर,
बुला रहा हो मुझे अंदर ।
या आना चाहता हो बाहर,
जैसे तालाब की घुटन में उसे
अब और जीना ग़वारा न हो ।
मैंने मौक़े का फंदा घुमाया,
क़िस्मत पे ज़ोर लगाया । 
एक अल्फाज़ तब निकला,
काँटे से आधा लटका हुआ ।
उसे छुड़ाकर कांटे से-
ध्यान से, आहिस्ता से । 
अपनी डायरी के डब्बे में
उसे संभाला, रख दिया ।
एक साँस और दबी वहीं ।
एक पँक्ति और उगी तभी ।
अपने कमज़ोरियों के तालाब में,
पाँव डुबाया मैं ,
एक ख्याल का काँटा डाले
एक दिन यूँहीं बैठा था ।

2 comments:

  1. ये बहुत अच्छी लगी, कल वाली दोनों से भी ज़यादा। :)

    ReplyDelete
  2. रचना जब अपने से गुजरती है अच्छी लगने लगती है यह लेखक के मन से गुजरा लम्हा सुंदर बन पड़ा है ............साधुवाद .............

    ReplyDelete