Tuesday, February 4, 2014

लप्रेक*-१

यहाँ लिखी बाकी सभी रचनाओं के जैसे ये भी केवल ख़ाली वक़्त की ऊबन का नतीजा है। इसे उसी नज़र से पढ़ें । 
१)
समा इतना खूबसूरत भी नहीं था कि उसे उपमाओं से लाद दिया जाए । एक हल्की शाम में कुछ मामूली दुकानें, इंतज़ार करने से पहले ही थक चुकी थीं । वो दुकान के सामने की ज़मीन को पानी के छींटों से जगाता रहा । ऊपर, स्टॉप पर एक टेम्पो रुका । वो नीचे उतरकर आगे चल पड़ी । ढलान पर कदम यूँ बढ़ रहे थे जैसे टेम्पो की गड़गड़ाहट उसके जूतों में घुस गई हो । दुकान के पास पहुँचते ही जूतों को ब्रेक लग गया  । पानी छींटता हुआ उसका हाथ भी बीच हवा में ठहर गया । गीले हाथों को शर्ट में पोंछते हुए, सूखे पैरों को गीली मिट्टी से बचता हुआ, वो उसके नज़दीक आ गया । अपने स्कूल के बैग से उसने एक किताब निकाली - ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स । किताब देखकर वो आँखों से मुस्कुरा दिया । उँगलियों को किताब पर फेरते हुए, कुछ बुदबुदाता हुआ अंदर चला गया । वो भी हाथों से कुछ कहती हुई आगे को निकल गई। बाज़ार का शोर वहीं खड़ा रहा । इस मामूली सी शाम में, दुकानें अब कुछ कुछ जागने लगी थी ।

२)
क्या बात करें ? पॉलिटिक्स की बातें तुम्हें बकवास लगती है । इस शहर में कोई दोस्त नहीं जिनकी बुराई करें । गैरों पे और कितना रश्क करेंगे हम ? और ये मौसम, चाँद, सितारे - ये सब मेरे लिए साइंस है । रोमांस नहीं । और हम ? चुप्पी । मैं ह्यूमैनिटिस में हमेशा ३५ मार्क्स से ही पास होता था मैडम । और मैं फर्स्ट क्लास, विथ डिस्टिंक्शन । हमेशा । मैं तो कब से अपनी कॉपी खोले बैठी हूँ । तुम जवाब कॉपी ही नहीं करते । जब दोनों जगह सवाल ही अलग हों तो तुम्हारा सही जवाब भी मुझे केवल फ़ेल ही करा सकता है । विथ डिस्टिकशन । 

३)
हल्दी सी पिली दुपहरी में वो नक़ाब पहन कर स्कूटी पर दनदनाते हुए आ रही थी। नकाब ऐसा कि धूप की एक बूँद भी जिस्म पर टपकने न पाए ।  उसने तुरंत कोचिंग के नीचे , छाँव में स्कूटी खड़ी करी। कानों से हैडफ़ोन निकला । कुछ मोबाइल में टिपिर टिपिर कर ही रही थी कि वो सीढ़ियों से नीचे उतरता हुआ दिखा। उसने इशारा किया । वो फ़ौरन पीछे की सीट पर खसक गई । स्कूटी दोपहर की आँख में धूल उड़ाती खो गई। कुछ कोचिंग बिना एडमिशन लिए यूँ ही पूरी हो जाती है ।

४)
मेरे पीछे पीछे आ जाओ । ये मिडिल एज आंटी टाइप क्या डर रही हो । हाथ पकड़ लो मेरा । बाप रे ! यहाँ मॉल में । सबके सामने । उससे अच्छा तो इस ऐसकलेटर पे ही फिसल जाऊँ। अरे कौन देख रहा है ? अब किसी को फर्क नहीं पड़ता है । सुनो , यहाँ पार्क की जगह पर अब मॉल भले ही बन गया है पर लोग आते अभी भी उसी काम के लिए हैं। वर्जिश करने ? नहीं नज़ारे लेने ।

*लप्रेक = लघु प्रेम कथा। रवीशजी का TM है ।  

1 comment:

  1. बिना शुरुआत और अंत के कथाएँ पढना बेबुनियादी लगता था,पर ये पढ़ के पता चला कि किस्से तो कही भी ,कभी भी बन जाते हैं।
    बेहद हट के है।

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