Saturday, March 1, 2014

दो परछाइयाँ

दोनों पब से ऐसे निकले जैसे वीकेंड के दो दिन निकल रहे हों । होने को ये दोनों कोई भी हो सकते थे । शहर का यही फ़ायदा है । आप खुद में खोने से पहले , भीड़ में खोने लगते हैं । खोना चाहते हैं । उस समय वहाँ बारिश नहीं हो रही थी । पर ऐसा मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए । इससे माहौल और रोमानी हो जाता है । दोनों फुटपाथ पर ऐसे एक होकर चलने लगे कि ऊपर से देढ़ धड़ और नीचे केवल दो हाथ ही दिखाई पड़ते थे । ग्रोथ रेट में कहीं पीछे छूट चुके इन फुटपाथों पर निकले गड्ढे, कभी-कभी उनको अलग ज़रूर कर देते थे । विकास के लिए ऐसी तड़प शायद ही किसी के मन में जागी होगी, जैसी उन अलग हुए पलों में उसके मन में उमड़ उठती  थी। 
चलते समय दोनों कह कम रहे थे , सुनते ज़्यादा थे । उनके चलने के अंदाज़ से ये अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि अब शराब सर से उतरकर पैरों में चढ़ गई है । एक दूसरे में लड़खड़ाते और खुद में संभलते वो कुछ दूर जाकर, आधी भुझी लाइट में जलते एक बस स्टाप पर जाकर रुक गए । अब दोनों कुछ नहीं कह रहे थे । आस पास वाले बहुत कुछ सुन रहे थे । थोड़ी ही देर में उसकी आँखें पानी से भर गईं । आँसू ही होंगे । शायद जलती शाम में कुछ गीली लकड़ियाँ डाल थी किसी ने । ये देखकर उसने पहले मुँह फेरा । मुँह फ़ेरते समय भी उसका धड़ और बाकी पूरा शरीर पहले जैसा उसकी तरफ़ ही था । फिर धीरे से अपनी गर्दन पे लिपटा स्कार्फ़ उसके सफ़ेद हाथों पर थमा दिया । स्कार्फ़ में लगा उसका परफ्यूम था या उसके गीले बालों की नमी । चेहरे पे रखते ही उसका पुराना चेहरा पुछ गया । आधी जलती लाइट में , दोनों आँखें अभी भी चमक रही थी । पर स्कार्फ़ के नीचे से निकला ये चेहरा, पुराने से कुछ अलग दिखाई पड़ता था । दोनों कुछ देर और वहीं खड़े रहे ।  लोग बस चार्ट देखने के बहाने उन्हें देखते रहे । उस वक़्त उन दोनों के बीच इतनी जगह दिखने लगी थी कि सारा शहर उसमें समा जाना चाहता था । 
आखिर, वक़्त से पीछे छूट चुकी वो बस आ गई । उसने फिर मुँह फ़ेरा । अबकी उसका धड़ भी गर्दन के साथ ही घूम गया । बस, रात के जैसे ही ख़ाली थी ।  फिर भी न जाने किसको पीछे छोड़ने की जल्दी में वो बस के दरवाज़े से तुरंत अंदर चली गई । खिड़की वाली सीट पर ही बैठी पर खिड़की से थोड़ा अलग होकर । बाहर से, वो खिड़की की सलाखों में उसका चेहरा तलाशने लगा । उसके पीछे खड़े लोग उन दोनों का चेहरा तलाशने लगे ।  दोनों एक दूसरे को सलाख़ों के पीछे से देख रहे थे । पता लगाना मुश्किल था वहाँ कौन क्या देख़ना चाहता था । 
अपने धुएँ से, दिन का गुस्सा, पीछे को निकालती हुई बस आगे को निकलने लगी । चारों पहिए चार कहाँर जैसे, ज़रा डागमागे के उठे । ऐसा लगा ये बस फिर से फूटपाथ पर गुज़रती हुई दो और जाने ले लेगी ।  वो भी अब बस की तरफ़ ही चल पड़ा । कदमों की चाल से पता चल रहा था कि नशा अब टूट गया था । उसी के गिरे टुकड़ों से खुद को बचाता हुआ वो आगे चलता रहा । दूर से अब एक धड़ और दो हाथ ही दिखाई पड़ते थे । बस स्टाप की अब पूरी तरह से जल रही लाईट में, दो परछाइयाँ साफ़ दिख रही थी । आस पास के लोगों के चेहरे धुँधले होने लगे थे । एक मन्नत जैसे, कोई वो स्कार्फ़ वहीं पास लगी रेलिंग पर बाँध गया था । बस की तरफ़ चलती हवा में वो अकेला वहाँ बँधा , हवा में हाथ हिलाता रहा । किसी को आते हुए देख कर या किसी जाते हुए के लिए । अब बारिश वाकई होने लगी थी । पर माहौल रुमानी नहीं लग रहा था ।

2 comments:

  1. एक बहुत अच्छी कहानी के लिये शुक्रिया आपकी कहानियाँ भी बिना लिखे के बीच का सफ़र तय करती हैं मुझे यह शैली बहुत पसंद है

    ReplyDelete
  2. कहानी लिखने के लिए शुक्रिया ! बहुत अच्छी लगी :)

    ReplyDelete