Saturday, March 29, 2014

रिमझिम गिरे सावन

इतनी ख़ामोशी से बरस जाता है ।
बूँद बूँद में कितना कह जाता है ।।

गिरे जो माटी पे, मलहम लगे
बदन पे गिरे तो रूआं जले
तुम भी जलाते, सहलाते मुझे
आओ तो आना जैसे सावन चले ।

छत पर बैठे, किसे बादल के संग
गाएँगे मल्हार हम होकर मलंग ।
और तभी, ऐसा हो जाए
चोंच में अपनी, तिनका दबाए
कोई चिड़िया विदेशी गुज़रे वहाँ से
रोक लेना उसे तुम ज़रा सा मना के
उसे सिम्फनी का कंडक्टर बनाकर
सात रंगों पे सारे सुरों को सजाकर
फिर झूमेंगे, बादल, तुम और मैं 
बस, भीड़ और नौकरी से परे । 

नीचे शहर को हम देखा करेंगे 
जलती आहों पे बरसा करेंगे । 
और संग बहा लाएँगे अपने 
वो भूली सी कश्ती  
छोड़ आया जिसे कोई 
बचपन की गली में 
या भटकाती जिसे हो 
इस शहर की सड़कें 
गड्ढों में इसके, डूबने न देंगे। 

वहीं दौड़ती किसी कार के पीछे 
बंद करें हों जिसने मौसम के शीशे 
हर ऐसी खिड़की खटकाते चलेंगे  
गीले हाथों से नज़्में सुनाते चलेंगे ।

अगर न आई तुम
तो ये सावन बेचारा 
सोचो झूलेगा लेकर
फिर किसका सहारा ?
होता अगर मैं कोई कालिदास 
किसी मेघदूत से करता अरदास 
भीगता है कोई इन बारिशों के परे, 
आओ तो आना जैसे सावन चले । 

2 comments:

  1. ऐसा लग रहा है जैसे ये नज़्म फिलहाल दिल्ली के मौसम का हाल बयां कर रही हैं ! :) बेहतरीन । तीसरी para सबसे अच्छी लगी ।

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  2. सतत परिपक्व होते शब्दों से अभ्व्यक्ति का सामंजस्य गहराई लिये है रचनाओं में शब्द चयन की (या उन्हें छोड़ देने की) व्यक्तिगत पसंद से ऊपर जाती रचनाएँ सुंदर बन पड़ती हैं और यही सौंदर्य इस रचना में स्पष्टतः परिलक्षित हुआ है। व्यक्तिगत रूप से मुझे यह रचना बेहतरीन लगी। आपका चित्रांकन और अभ्व्यक्ति अतयंत सुंदर होते हैं इनमें सुंदर आवश्यक शब्दों का प्रयोग पाठकों को सामान्य जीवन के काव्य बन जाने का नया अनुभव दे रहा है। बहुत ही अच्छी रचना बनी है इसके लिये बधाई। आगे भी ऐसी ही सुंदर शारीरिक सौष्ठव वैचारिक गहराई दुनियावी फैलाव लिये आने वाली रचनाओं की प्रतीक्षा में……… शुभकामनाएँ

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