Monday, May 26, 2014
Sunday, May 25, 2014
Friday, May 23, 2014
सुनो
सुनो, उठो ।
हमें फिर चलना है ।पर पैरों से नहीं इस बार ।
समय तो कब का
निकल गया अकेले
हम रह गए जकड़े,
लम्हों में इस पार ।
सुनो,
धड़कने भर लेना,
दिल की जेबों में
कि सफर में साँसें
कम पड़ी अगर ।
उधार न देगा
कोई भी हमको
जीवन कितना ही
सस्ता हो उधर ।
सुनो,
ये न पूछना,
कि जाना कहाँ है ?
रास्तों का मुझे पता नहीं ।
अँधेरे झिलमिलाएँ
जुगनुओं से जहाँ,
रेशा रौशनी का मिलेगा वहीं ।
कोई राह मिले 'गर ,
तो मिलना संभलकर,
कोई मोड़ ही उसका मकान होगा ।
नज़र आए जो मंज़िल
तुम रुकना ना तकना
सफ़र ये वार्ना नाकाम होगा ।
सुनो,
थक जाओ जो तुम ,
धड़कनों को मेरी
क़दमों पे अपने
ज़रा बाँध लेना ।
जो गड्ढे दिखे
या दिखे कोई खाई
सपनों से ये कहना
ज़रा साथ देना ।
सुनो,
ये बातें मैं सारी
फिर से कहूँगा ।
हर मंज़िल के पार
जब तुमसे मिलूँगा ।
सफ़र क्योंकि अपना
शुरू तब ही होगा ।
इन शब्दों के आगे
जब कविता लिखूँगा ।।
Saturday, May 17, 2014
लप्रेक - लघु प्रेम कथा
"समंदर को पहले से इतने तय फ्रेमों में देख लिया है, कि अब इसे केवल खाली नज़र से देखना ही अच्छा लगता है । सारी उपमाओं से विरक्त ।" 
"समंदर पर घंटों नाव सी अपनी आँखें तैराना, और फिर देखते देखते डूब जाना, मुझे अच्छा लगता है ।"
"हर दूर जाती नाव अपने संग मेरा भी एक हिस्सा ले जाती है ।....ये लहरों पर उड़ते पंछियों को देखकर अजीब लगता है । डर लगता है कोई इनके साथ मुझे एक तस्वीर में क़ैद कर, किसी दीवार पर टांग न दे।"
"लहरें ! लहरें को सुनकर कितनी शांति मिलती है न ?" 
"लहरों का शोर ख़ाली पड़े मन को और चिढ़ा जाता है । भीतर की कई गुफ़ाएँ खुलने लगती है।"
"हम्म … "
"पर इतना पानी देखकर सुकून मिलता है कि यहाँ मन का कोई कोना सूखा नहीं बचेगा ।"
"चलो कुछ तो पसंद आया तुम्हें ....ये देखो, यहाँ साहिल और वहाँ क्षितिज । दोनों में कितना फासला है न । फिर भी दोनों कितने जुड़े हुए हैं ।"
"साहिल सत्य है । क्षितिज मिथ्या । "
"और हम ?"
"इस साहिल के पीछे मैं हूँ । और इसके आगे भी मैं । इन दोनों मैं में, दूरी बहुत है । पर सच कहूँ तो ये जानकर अच्छा लगता है ।"
"और हम ?"
"पीछे ज़मीन है । ठोस है । सख़्त है। आगे पानी है। तरल है । भँवर है। .... "
(चुप्पी )
 ".... तुमने कुछ कहा क्या ?"
"इन सबमें हम कहाँ हैं ?"
"हम यहाँ बीच में , गीली रेत पर । जहाँ पाँव के नीचे से जीवन सरकता जाता है ।जितना बाहर निकलना चाहता है, उतना ही अंदर धँसता चला जाता है। पर हम यहीं है। एक साथ । "
"हाँ । क्षितिज और साहिल जैसे ।"
Tuesday, May 13, 2014
सोलह मई के बाद में
सोलह मई के बाद,
जब भारत भाग्य विधाता
की बदलेगी तक़दीर ।
और जीत का करके दावा, 
होगा दिल्ली में तख्तनशी ।
तुम हार कर सब आना,
एक बार फिर वहीं ।
बेताज खामोशी जहाँ,
फिरती है शान से ।
सब तजकर चले आना,
सोलह मई के बाद में ।
चमक रही थी गलियाँ,
जहाँ उजले नारों से ।
धूसर पड़ी हुई है अब,
खाली मटमैले वादों से ।
बचकर आँधी से ज़रा,
बनकर धीमी सी हवा,
( आए जो तरस थोड़ा
वीरानों के हाल पे )
हौले से गुज़र जाना, 
सोलह मई के बाद में ।
साऊन्ड बाईट से कटी हुई,
कुछ गुमनाम आवाज़ें खोई हैं ।
अख़बार के जागे पन्नों पर,
अब भी कुछ ख़बरें सोई हैं ।
जो तश्बीर से थी ढकी दरारें
अब सीली पड़ी हैं वो दीवारें 
बुनियाद एक चुनकर यहाँ से
बुनियाद एक चुनकर यहाँ से
ले आना तुम बोने वहाँ पे ।
कोई भीड़ जहाँ न जाती हो
ना आवाज़ जीत की आती हो 
कोई झूठा वादा कर के कभी
एक नया बहाना कह के अभी ।
कोरे पर्चे पर लिखकर नाम 
मेरी हार के वो किस्से तमाम ।
इस भूले से उम्मीदवार को
मत देना अपना याद से,
तुम पर कभी न राज करूँगा,
सोलह मई के बाद में ।
सोलह मई के बाद में ।
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इसे लिखने का आईडिया रवीशजी के एक लप्रेक से आया।किसी ने भेझी थी पढ़ने को। "सोलह मई के बाद " ये फ्रेज वहीं से लिया है।
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