"समंदर को पहले से इतने तय फ्रेमों में देख लिया है, कि अब इसे केवल खाली नज़र से देखना ही अच्छा लगता है । सारी उपमाओं से विरक्त ।" 
"समंदर पर घंटों नाव सी अपनी आँखें तैराना, और फिर देखते देखते डूब जाना, मुझे अच्छा लगता है ।"
"हर दूर जाती नाव अपने संग मेरा भी एक हिस्सा ले जाती है ।....ये लहरों पर उड़ते पंछियों को देखकर अजीब लगता है । डर लगता है कोई इनके साथ मुझे एक तस्वीर में क़ैद कर, किसी दीवार पर टांग न दे।"
"लहरें ! लहरें को सुनकर कितनी शांति मिलती है न ?" 
"लहरों का शोर ख़ाली पड़े मन को और चिढ़ा जाता है । भीतर की कई गुफ़ाएँ खुलने लगती है।"
"हम्म … "
"पर इतना पानी देखकर सुकून मिलता है कि यहाँ मन का कोई कोना सूखा नहीं बचेगा ।"
"चलो कुछ तो पसंद आया तुम्हें ....ये देखो, यहाँ साहिल और वहाँ क्षितिज । दोनों में कितना फासला है न । फिर भी दोनों कितने जुड़े हुए हैं ।"
"साहिल सत्य है । क्षितिज मिथ्या । "
"और हम ?"
"इस साहिल के पीछे मैं हूँ । और इसके आगे भी मैं । इन दोनों मैं में, दूरी बहुत है । पर सच कहूँ तो ये जानकर अच्छा लगता है ।"
"और हम ?"
"पीछे ज़मीन है । ठोस है । सख़्त है। आगे पानी है। तरल है । भँवर है। .... "
(चुप्पी )
 ".... तुमने कुछ कहा क्या ?"
"इन सबमें हम कहाँ हैं ?"
"हम यहाँ बीच में , गीली रेत पर । जहाँ पाँव के नीचे से जीवन सरकता जाता है ।जितना बाहर निकलना चाहता है, उतना ही अंदर धँसता चला जाता है। पर हम यहीं है। एक साथ । "
"हाँ । क्षितिज और साहिल जैसे ।"
 
गीली रेत पर पर तो धंसते चले जायेंगे..पानी में बहते चले जायेंगे । हम यहीं हैं, तो हमें कोई क्यूँ नहीं देख पा रहा ? क्यूँ सिर्फ़ समंदर हमारी बात समझ रहा है ?
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