Friday, May 23, 2014

सुनो

सुनो, उठो ।
हमें फिर चलना है ।
पर पैरों से नहीं इस बार ।
समय तो कब का
निकल गया अकेले
हम रह गए जकड़े,
लम्हों में इस पार ।

सुनो,

धड़कने भर लेना,
दिल की जेबों में
कि सफर में साँसें
कम पड़ी अगर ।
उधार न देगा 
कोई भी हमको
जीवन कितना ही 
सस्ता हो उधर ।

सुनो,

ये न पूछना,
कि जाना कहाँ है ?
रास्तों का मुझे पता नहीं ।
अँधेरे झिलमिलाएँ 
जुगनुओं से जहाँ,
रेशा रौशनी का मिलेगा वहीं ।
कोई राह मिले 'गर ,
तो मिलना संभलकर,
कोई मोड़ ही उसका मकान होगा ।
नज़र आए जो मंज़िल
तुम रुकना ना तकना
सफ़र ये वार्ना नाकाम होगा ।

सुनो,
थक जाओ जो तुम ,
धड़कनों को मेरी
क़दमों पे अपने
ज़रा बाँध लेना ।
जो गड्ढे दिखे
या दिखे कोई खाई
सपनों से ये कहना
ज़रा साथ देना ।

सुनो,

ये बातें मैं सारी 
फिर से कहूँगा ।
हर मंज़िल के पार
जब तुमसे मिलूँगा ।
सफ़ क्योंकि अपना
शुरू तब ही होगा ।
इन शब्दों के आगे
जब कविता लिखूँगा ।।   

2 comments:

  1. कोई राह मिले 'गर ,
    तो मिलना संभलकर,
    कोई मोड़ ही उसका मकान होगा
    beautiful poetry Sacinji ...n presented with thoughts drifting in n drifting out.....wish poetry develops further.......जुगनुओं से जहाँ, रेशा रौशनी का मिलेगा

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  2. मन प्रसन्न हो गया

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