चला जाता मैं कब का 
उन दो कुर्सियों ने गर
कई हाथों से मुझको 
रोका ना होता ।
एक दिन जब
सुबह उठाने में
छलक गई थी चाय
तुमने घबराकर कैसे
अपने शीतल स्पर्श का
बर्नोल लगाया था मुझे ।
कुछ छाले,
जो चाय के छींटों से
जागने लगे थे
वो थामकर
ऊँगली तुम्हारी,
संग मेरे फिर सो गए ।
कुछ छाले,
जो चाय के छींटों से
जागने लगे थे
वो थामकर
ऊँगली तुम्हारी,
संग मेरे फिर सो गए ।
आज फर्श पर
उस गिरी चाय के
सूखे धब्बे,
उस गिरी चाय के
सूखे धब्बे,
बनकर आँसू ,
भरी आँखों से
भरी आँखों से
ताक रहे हैं मुझे ।
आज फिर से,
कुछ छाले
आज फिर से,
कुछ छाले
जाग रहे हैं मुझमें ।
इन छालों की नींद
तुम्हें देकर,
तुम ही बताओ,
मैं कैसे चला जाता ।
इन छालों की नींद
तुम्हें देकर,
तुम ही बताओ,
मैं कैसे चला जाता ।
छुट्टी के दिन थे जब
तुम फैलीं थी सुबह सी
मैं दोपहर सा लेटा था
जहाँ खिड़की पे हमारी
एक घोंसला रहता था ।
एक चिड़िया भी थी
जो चूड़ी पर तुम्हारी,
अक्सर झूला करती थी ।
वो अपने पँखों पर लिखकर
उड़ानों के किस्से
उन्हें घर आते जाते,
गिरा जाती थी नीचे ।
जिन्हें तुम दौड़ के
अपनी डायरी में
जहाँ खिड़की पे हमारी
एक घोंसला रहता था ।
एक चिड़िया भी थी
जो चूड़ी पर तुम्हारी,
अक्सर झूला करती थी ।
वो अपने पँखों पर लिखकर
उड़ानों के किस्से
उन्हें घर आते जाते,
गिरा जाती थी नीचे ।
जिन्हें तुम दौड़ के
अपनी डायरी में
भर लिया करती थी ।
पूरे अड़तीस दिन हुए
वो चिड़िया तब से
आई नहीं मुझसे मिलने ।
और वो डायरी भी
हर चीज़ की तरह
ख़ाली पड़ी है ।
कभी कभी,
टूटी चूड़ियों को देखकर,
फिर मायूस लौट जाता है ।
कांच के उन टुकड़ों से
चमकती,चुभती यादों को -
उन पर से होकर गुज़री
कई ज़ख़्मी उड़ानों को -
अकेला तड़पता छोड़कर ,
तुम ही बताओ
मैं कैसे चला जाता ।
छत पर बैठे दोनों
दो कुर्सियों के संग
हम चारों के बीच
मैंने आस्मां बिछाया था ।
जिस पर तुम नाज़ुक
तारे टाँकती थी ।
कितनी धूप लगाई थी
पक्का रंग चढ़ाने में ।
तुम रात रात जागी थी
बादलों को हटाने में ।
जो आते थे उड़ते उड़ते
हमारे तारों को चुगने ।
मैं वक़्त देखकर,
चाँद खसकाता था ।
तुम पलकों से चुनकर,
ओंस बटोरती थी ।
वो सुबह लाने की ज़िद थी
या हमारे आस्मां की हद थी ।
आह भरी थी तुमने,
या कोई हवा चली थी ।
या मैंने ही कोई सिरा,
ज़रा कस के पकड़ा था ।
आँख खुली तो आस्मां
दो हिस्सों में पड़ा था ।
ख्वाहिशों का क़सूर था
तारों को टूटना ज़रूर था ।
पूरे अड़तीस दिन हुए
वो चिड़िया तब से
आई नहीं मुझसे मिलने ।
और वो डायरी भी
हर चीज़ की तरह
ख़ाली पड़ी है ।
कभी कभी,
एक तिनका आता है बस
सूखे घोंसले से उड़करटूटी चूड़ियों को देखकर,
फिर मायूस लौट जाता है ।
कांच के उन टुकड़ों से
चमकती,चुभती यादों को -
उन पर से होकर गुज़री
कई ज़ख़्मी उड़ानों को -
अकेला तड़पता छोड़कर ,
तुम ही बताओ
मैं कैसे चला जाता ।
छत पर बैठे दोनों
दो कुर्सियों के संग
हम चारों के बीच
मैंने आस्मां बिछाया था ।
जिस पर तुम नाज़ुक
तारे टाँकती थी ।
कितनी धूप लगाई थी
पक्का रंग चढ़ाने में ।
तुम रात रात जागी थी
बादलों को हटाने में ।
जो आते थे उड़ते उड़ते
हमारे तारों को चुगने ।
मैं वक़्त देखकर,
चाँद खसकाता था ।
तुम पलकों से चुनकर,
ओंस बटोरती थी ।
वो सुबह लाने की ज़िद थी
या हमारे आस्मां की हद थी ।
आह भरी थी तुमने,
या कोई हवा चली थी ।
या मैंने ही कोई सिरा,
ज़रा कस के पकड़ा था ।
आँख खुली तो आस्मां
दो हिस्सों में पड़ा था ।
ख्वाहिशों का क़सूर था
तारों को टूटना ज़रूर था ।
नुकीली किसी बात से
उस सुबह का रंग सूर्ख था ।
तुम एक टुकड़ा लिए
नई उड़ान तलाशने निकल गई।
मैं अपना हिस्सा लिए
पुरानी ज़मीन ढूँढने बैठ गया ।
और वो दो कुर्सियाँ -
ब्लैक होल सी
अंदर किए ज़ब्त
वो सारा गुज़रा वक़्त ,
वैसे ही, वहीं-
आज भी बैठीं हैं ।
मैं उठकर जाना चाहता हूँ
वो बार-बार,
हर बार, मुझे
अपने अंदर खींच लेती है ।
छोड़कर खुद को
इतने टुकड़ों में तुम्हारे पास
तुम एक टुकड़ा लिए
नई उड़ान तलाशने निकल गई।
मैं अपना हिस्सा लिए
पुरानी ज़मीन ढूँढने बैठ गया ।
और वो दो कुर्सियाँ -
ब्लैक होल सी
अंदर किए ज़ब्त
वो सारा गुज़रा वक़्त ,
वैसे ही, वहीं-
आज भी बैठीं हैं ।
मैं उठकर जाना चाहता हूँ
वो बार-बार,
हर बार, मुझे
अपने अंदर खींच लेती है ।
चला जाता मैं कब का 
उन दो कुर्सियों ने गर
कई हाथों से मुझको 
रोका ना होता ।
छोड़कर खुद को
तुम ही बताओ,
मैं कैसे चला जाता ।
 
वाह , सरल ,सुन्दर, सम्मोहन ....:)
ReplyDeleteजाने और टूट जाने के बीच द्वन्द में उलझते द्वंद से निकलते कुछ रह गया जिसे शब्द में नहीं बांध पाया। एक बार पूरी तरह टूट जायेंगे तो यह झिझक खत्म हो जाएगी। आप टूटिये तो सही भावनाओं के जुड़ाव बिखरने नहीं देंगे, बिखर भी गए तो हर टुकड़े के बीच मुकम्मल आत्मा सी गहरी बॉडिंग होगी। खयाल के स्तर पर कविता बहुत सरलता से जिन ऊंचाइयों तक गयी है वो हैरान कर देने वाली है। बहुत खूबसूरती से लिखी गयी कुछ पंक्तियाँ पाठक को इतना जकड़ लेती हैं कि पिछली भावनाओं से मुक्त हो जाता है और आगे जा नहीं पाता सुंदर कविता है इसके लिए आपको बधाई और अंत में यह बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ :
ReplyDeleteहमारे आस्मां की हद थी
आह भरी थी तुमने
या कोई हवा चली थी
या मैंने ही कोई सिरा
ज़रा कस के पकड़ा था
आँख खुली तो आस्मां
दो हिस्सों में पड़ा था
ख्वाहिशों का क़सूर था
तारों को टूटना ज़रूर था
बहुत बढ़िया दिल से निकली दिल तक पहुँचती प्रस्तुति
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