Wednesday, December 31, 2014

चंद आख़िरी सवाल

घड़ी की सुइयों से 
जो समय लटका है,
उससे टपकते लम्हों का,
हिसाब कौन रखता है ?

अंतरिक्ष में दूर कहीं,
समय जहाँ जनमा है ।
प्रसव की ऐसी पीड़ा को,
हर पल कौन सहता है ?

कहने सुनने में ख़र्च हुए
चुप्पी के लम्हों से पूछो ।
अंतिम साँसों की धड़कन का,
मोल तय कौन करता है ?


टुकड़ा टुकड़ा जोड़ा है,
या टुकड़ा टुकड़ा बीत रहा ।
आधी अधूरी यादों से,
कैसे जीवन पूरा होता है ?

राहें पलट पलट के देखीं 
निशाँ फिर भी मिलते नहीं ।
समय की सीधी गलियों में,
हर बार क्यों मुड़ना पड़ता है ?

ख़त जो कभी लिखे नहीं
फिर भी जिन्हें रोज़ पढ़ा ।
वो कोरे काग़ज़ से भरी हुई,
किताब संग क्यों रखता है ?

अनंत फैली इस सृष्टी में,
चंद अरमानों की जगह नहीं ।
क्यों क्षणभर खींची हर साँस को,
पूरा जीवन ढोना पड़ता है ?

Sunday, December 21, 2014

गति

मैंने अक्सर देखा है 
घड़ी की सुईयाँ कैसे
सदा चलती रहती हैं,
पर वक़्त फिर भी वहीं 
रुका थमा सा रहता है ।

ठीक वैसे ही
जैसे, इतनी दूर
साथ चलकर भी,
हम अब तलक वहीं है ।।


Saturday, December 20, 2014

आर्केलॉजी

मैंने देखा है उसे
वो हर रात कैसे,
पिछला दिन का 
ज़रा सा टुकड़ा,
मसलकर ऊँगलियों के बीच 
रोज़ना नई रात में, 
धीरे से मिला जाती है ।
या शायद समय का बुना 
वो कपड़ा कोई,
रेशा रेशा जाँचती है  !

देखना तुम भी,
गौर से कभी
उस दही लगे 
छोटे चम्मच को ।
कितने वर्षों का भार वो,
अपनी ओक में उठाए है ।
और बैठकर आराम से 
ध्यान से सुनना कभी, 
उस दही के गोल बर्तन को ।
सदियों पुराने राज़ जो
लम्हा लम्हा कर जमाए है ।