Saturday, December 20, 2014

आर्केलॉजी

मैंने देखा है उसे
वो हर रात कैसे,
पिछला दिन का 
ज़रा सा टुकड़ा,
मसलकर ऊँगलियों के बीच 
रोज़ना नई रात में, 
धीरे से मिला जाती है ।
या शायद समय का बुना 
वो कपड़ा कोई,
रेशा रेशा जाँचती है  !

देखना तुम भी,
गौर से कभी
उस दही लगे 
छोटे चम्मच को ।
कितने वर्षों का भार वो,
अपनी ओक में उठाए है ।
और बैठकर आराम से 
ध्यान से सुनना कभी, 
उस दही के गोल बर्तन को ।
सदियों पुराने राज़ जो
लम्हा लम्हा कर जमाए है ।

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