Wednesday, December 31, 2014

चंद आख़िरी सवाल

घड़ी की सुइयों से 
जो समय लटका है,
उससे टपकते लम्हों का,
हिसाब कौन रखता है ?

अंतरिक्ष में दूर कहीं,
समय जहाँ जनमा है ।
प्रसव की ऐसी पीड़ा को,
हर पल कौन सहता है ?

कहने सुनने में ख़र्च हुए
चुप्पी के लम्हों से पूछो ।
अंतिम साँसों की धड़कन का,
मोल तय कौन करता है ?


टुकड़ा टुकड़ा जोड़ा है,
या टुकड़ा टुकड़ा बीत रहा ।
आधी अधूरी यादों से,
कैसे जीवन पूरा होता है ?

राहें पलट पलट के देखीं 
निशाँ फिर भी मिलते नहीं ।
समय की सीधी गलियों में,
हर बार क्यों मुड़ना पड़ता है ?

ख़त जो कभी लिखे नहीं
फिर भी जिन्हें रोज़ पढ़ा ।
वो कोरे काग़ज़ से भरी हुई,
किताब संग क्यों रखता है ?

अनंत फैली इस सृष्टी में,
चंद अरमानों की जगह नहीं ।
क्यों क्षणभर खींची हर साँस को,
पूरा जीवन ढोना पड़ता है ?

2 comments:

  1. बहुत सुंदर कविता है इसको ब्लॉग से अलग भी छपने के लिए भेजें कहीं। बहुत सुंदर....

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  2. अद्भुत सचिन जी... उम्दा... बहुत ही उम्दा...

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