दिन बुझते हुए,
बरामदे का एक,
बल्ब जला गया ।
फिर शाम की सुरंग के
आगे उसे लटका गया ।
कुछ पतंगे तब उसे
छूने की फ़िराक़ में ।
निकले अपने अंधेरों से ,
तमन्ना लिए बेसबब ।
कुछ एक सी आवाज़ किए ।
कुछ एक से चेहरे लिए ।
कुछ तो था उस बल्ब में
जिसे छूने की चाह में ।
जा जा के लौट आते थे ,
जल जाने की परवाह में ।
शाम रात में फिसल गई
और बात ज़हन से निकल गई।
कभी रात की ख़ामोशी,
उनके पंखों पे भंभनाती थी ।
पागल चाहत कभी उनकी,
रातों को रौशन कर जाती थी ।
रातभर ये छूने, छलने का
खेल यूँहीं चलता रहा ।
हर चट्ट की आवाज़ में ,
मैं भी कुछ जलता रहा ।
नींद खुली तो देखा,
वहीं उस बल्ब के नीचे ।
वो पतंगे सब मर गए । 
और वो तड़पते हुए पतंगे ,
कुछ शब्द थे; मायने ढूँढ़ते ।
वो शब्द सारे जल गए,
मेरी नज़्म अधूरी रह गई ।
वो ख्याल जलता रह गया -
जाने अब कितनों की, और जान लेगा ।
बरामदे का एक,
बल्ब जला गया ।
फिर शाम की सुरंग के
आगे उसे लटका गया ।
कुछ पतंगे तब उसे
छूने की फ़िराक़ में ।
निकले अपने अंधेरों से ,
और लगे वहीं मंडराने ।
झुण्ड में आए थे सब,तमन्ना लिए बेसबब ।
कुछ एक सी आवाज़ किए ।
कुछ एक से चेहरे लिए ।
कुछ तो था उस बल्ब में
जिसे छूने की चाह में ।
जा जा के लौट आते थे ,
जल जाने की परवाह में ।
शाम रात में फिसल गई
और बात ज़हन से निकल गई।
कभी रात की ख़ामोशी,
उनके पंखों पे भंभनाती थी ।
पागल चाहत कभी उनकी,
रातों को रौशन कर जाती थी ।
रातभर ये छूने, छलने का
खेल यूँहीं चलता रहा ।
हर चट्ट की आवाज़ में ,
मैं भी कुछ जलता रहा ।
नींद खुली तो देखा,
वहीं उस बल्ब के नीचे ।
काले, नीले, जले हुए,
वो बल्ब जलता हुआ,
एक सुलगता हुआ ख्याल था । और वो तड़पते हुए पतंगे ,
कुछ शब्द थे; मायने ढूँढ़ते ।
वो शब्द सारे जल गए,
मेरी नज़्म अधूरी रह गई ।
वो ख्याल जलता रह गया -
जाने अब कितनों की, और जान लेगा ।
 
बहुत क़ातिलाना लिखा है :)
ReplyDeleteबहुतखूब वाह क्या लिखा है
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