Sunday, February 23, 2014

एक शाम बरामदे में

दिन बुझते हुए,
बरामदे का एक,
बल्ब जला गया ।
फिर शाम की सुरंग के
आगे उसे लटका गया ।
कुछ पतंगे तब उसे
छूने की फ़िराक़ में । 
निकले अपने अंधेरों से ,
और लगे वहीं मंडराने ।
झुण्ड में आए थे सब,
तमन्ना लिए बेसबब ।
कुछ एक सी आवाज़ किए ।
कुछ एक से चेहरे लिए ।
कुछ तो था उस बल्ब में
जिसे छूने की चाह में । 
जा जा के लौट आते थे ,
जल जाने की परवाह में ।
शाम रात में फिसल गई
और बात ज़हन से निकल गई।
कभी रात की ख़ामोशी,
उनके पंखों पे भंभनाती थी ।
पागल चाहत कभी नकी,
रातों को रौशन कर जाती थी ।
रातभर ये छूने, छलने का
खेल यूँहीं चलता रहा । 
हर चट्ट की आवाज़ में ,
मैं भी कुछ जलता रहा । 
नींद खुली तो देखा, 
वहीं उस बल्ब के नीचे । 
काले, नीले, जले हुए,
वो पतंगे सब मर गए । 


वो बल्ब जलता हुआ,
एक सुलगता हुआ ख्याल था । 
और वो तड़पते हुए पतंगे , 
कुछ शब्द थे; मायने ढूँढ़ते  ।
वो शब्द सारे जल गए, 
मेरी नज़्म अधूरी रह गई । 
वो ख्याल जलता रह गया -
जाने अब कितनों की, और जान लेगा । 

2 comments:

  1. बहुत क़ातिलाना लिखा है :)

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  2. बहुतखूब वाह क्या लिखा है

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