Saturday, April 12, 2014

सुसाईड नोट

कुछ तो बात रही होगी
जो खुद से न कही होगी ।
आती जाती हर साँस की
हर करवट को चुभी होगी ।


शाम थी,
वक़्त था,
शायद साढ़े सात का।
वो थी,
मैं था,
मौसम था बरसात का।

कल देखा था उसे आँगन से,
मंडराती मन की उलझन में ।
बिल्डिंग की ऊपरी माले से,
थी घंटों लटकी हुई सी।
बैठी रही वो देर तलक ,
थी कुछ उखड़ी हुई सी । 

इस तरह वो नीचे 
झाँकती थी बार बार 
किसी वक़्त की आमद का
था जैसे उसको इंतज़ार 
कुछ सोच कर टेरिस पर
फिर टहल आती थी ।
इंतज़ार में थी किसे के
या यूँ मन बहलाती थी ?
कुछ तो था, जो कहना था
जो उसने भी न समझा था । 

फिर ना जाने मन में क्या आया
या देखा उसने कोई साया
या किसी नाऊँमीदी के झोंकें ने
झाँसे में अपने फुसलाया ।
ऊँगली पकड़ किसी सपने की
नीचे कूदी -
जैसे बाहों में किसी अपने की।

चुप चाप हवा से कटते हुए ,
मंज़िल दर मंज़िल मरते हुए
घूमती गिरती जाती थी
नीचे सहमी सड़क पे ।
सांस को हलक में रोके हुए

मैं दुआ में था उस झोंके के
जो ले जाए इसे फिर फलक पे ।

तभी एक तेज़ चलती कार से
टकरा गई बेचारी रफ़्तार से
फिर टूट के गिरी उसकी
कांच की खिड़की पर ।
वो
 बारिश की अटकी बूँद थी
जली सावन की सिगड़ी पर । 

फिर कार चलाने वाले ने 
बेहरहमी से उसे पोंछ दिया 
इस शहर ने फिर एक बार
एक सुसाईड नोट खो दिया ।


एक मौत से अनजान सी ,
वो शाम थी शमशान सी । 
कुछ तो बात रही होगी 
जो उस नोट ने कही होगी… 

1 comment:

  1. मंजिल दर मंजिल मरते हुए
    फील करा दिया आपने...स्तब्ध हूँ ...

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