Saturday, June 14, 2014

बहने दे

ठहर के कुछ देर
बादलों पे,
देख ज़रा -
आस्मां पे ज़मीन
चलती है कैसे ?
रह जाते हैं 
जो निशाँ,
सफ़र के
क़दमों पे ।
राह खोने पे,
मिल जाते हैं कैसे ?

'गर गुज़रो
सावन की अँधेरी
गलियों से,
तो इतना 
याद रखना ।
कुछ बूँदों का 
क़र्ज़
अब भी,
बाकी है तुम पे ।

जो सैर करता
मिल जाए कोई
एक धनक अधूरा -
तुम सा । 
दो पल रुकना
मिलना उससे, 
छोड़कर सारे सिरे । 
संग भर लेना,
कलम में
खुशबू तमाम
रंगों की ।
जो टूट कर 
बूँदों से निकलें 
और फ़िज़ाओं में बहें 
फिर लौटकर आना 
उन्हीं बदरंग से
चंद पन्नों पर। 
और याद कर,
लिखना फिर,
एक वो
भूला हुआ नाम ।
गीले कलम की 
नई छुअन से 
शायद इस बार,
फिर से लाल हो सके -
वो मुरझाया हुआ गुलाब। 

कुछ अधूरी
बातों का कोहरा,
पीछा तुम्हारा 
करने लगे ।
चला हुआ
हर रास्ता, 
फिर होकर तुमसे
गुज़रने लगे ।
और सुरंग 
किसी नज़्म की
आए न जब नज़र ।
यादों पे तुम अपनी,
सावन सा फ़ैलकर।
उमरों की ज़मीन पर
लम्हों सा गिर जाना ।
फट निकले जो आबशार
संग उनके बह जाना ।
बस काटकर कुछ मिट्टी,
एक आसमान सजाना है ।
अपने ही सावन में फिर, 
घुलकर डूब जाना हैं ।

ठहर के कुछ देर
बादलों पे
देख ज़रा -
आस्मां पे ज़मीन
चलती है कैसे ?
बो जाते हैं
जो निशान 
सफर पे
क़दमों से ।
मौसम बदलने पर,
उग आते हैं कैसे ?

1 comment:

  1. विचारों की खूबसूरती चेहरे पर भावों की गहराई सुगठित देह ...... यह कविता लिखी है तुमने या उड़ेल दिया है रचना का अप्रतिम सौंदर्य पढ़कर मैं खुद सौंदर्य में डूब गया .....अद्भुद ............अद्भुद

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