Wednesday, October 22, 2014

गवाही

सच कहना -
तुमने सुनी है न,
उस ख़ाली पल की हँसी ।
जैसे सुनसान सड़क पर,
हों ढेरों धूप के गड्ढे 
जिन्हें टाँपती, पार करती, 
एक सूखी हुई पत्ती । 
जिस हँसी में -
न दर्द है,
न किस्सा कोई । 
एक गीला शगाफ़1 है
सूखे किसी चेहरे पर ।
या उठती कोई आवाज़ है,
सदियों के पहरे पर । 

सच कहना -

( क्योंकि सच क्या है, 
मुझको पता नहीं )
साँसों के बीच दफ़्न
इस ख़ाली लम्हे में, 
कौन जीता है ?
या बहता जाता है कुछ,
जिसे फिर -
कोई ख्याल पीता है । 

सच कहना, 

जब समय पर ग्रहण लगता है ,
और बोसीदा2 यादों का आस्मां 
बिलकुल साफ़ दिखता है, 
एक धुंध तुम्हारे अंदर 
चुपके से -
बीज कोई बोती है क्या ?
ख़ाली समय की साँसे,
फिर जिसे,
अपने हाथों से रोपती हैं क्या ?

सच कहना -
घड़ी की घूमती सुइयों से,

जब कोई लम्हा बच निकलता है ।
और हाथ पकड़ कर तुम्हारा,
कहीं दूर लेजाकर बैठता है ।
तुमने चाहा था न
पूछना उससे - 
ख़ाली कमरे में कौन,
भरी आवाज़ सा रहता है ?

सच कहना,
जब भी यूँही कोई तुम्हें
सच कहने को कहता है ।
कौन सा ख़ाली लम्हा फिर,
तुमको गीता सा लगता है ?



1 दरार ,crack
2. old, worn out , rotten,

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