Sunday, June 16, 2013

दोपहर की आवाजें

बिना शक्ल की ये आवाज़ें -

जैसे,
गहरी नींद से जागकर,
कोई अँगड़ाई लेकर उठा हो ।
अलसाई धरती ने ली हो करवट,
और बिस्तर से कुछ गिर गया हो ।
जैसे,
शहर के शोर से बचकर,
ख़ामोशी को आवाज़ मिली हो कोई ।
उड़ते तन्हा पंछी को देखकर,
गुज़रते प्लेन ने आवाज़ लगाई हो कोई।
जैसे,
कोई स्कूल में चुकाकर अपने बचपन का क़र्ज़ ,
ठगा-सा, पाँव रगड़ाता, वापस लौट रहा हो ।
लाल कपड़े में ढँक के कुल्फ़ी,
ठेले वाला बजा के घंटी,
तपती जेठ में क्रिसमस मना रहा हो।
जैसे,
भूखे पेट, जूठे बरतन ओरों के-
मांझती उस औरत से,
कोई थाली गिर गई हो।
दूर फैक्ट्री में बजा हो साईरन,
और सूखी रोटी में किसी की शक्ल दिख गई हो।
जैसे,
बादल का दुप्पटा लहरा कर आस्मां में,
छत पर सूख रहे कपड़ों ने,
राहत की साँस ली हो ।
खिड़की ने परदे को हिलाकर हौले से,
सामने वाली खिड़की से कोई बात कही हो ।
जैसे,
दिहाड़ी के पसीने में भीगे सपनों ने,
"बस कुछ देर और" की आवाज़ लगाई हो।
सुबह से निकले भटकते परिंदों को,
खाली घोंसलों ने पुकार लगाई हो।
जैसे,
शौहर के घर आने से पहले,
उसने खुद को सुनना चाहा हो।
दिन को अलविदा कहने के लिए,
शाखों ने हाथ हिलाया हो।
जैसे,
खाली रसोई में बरतनों ने,
मुझे गिर गिरकर वापस बुलाया हो ।
जैसे,
हुआ ही न हो ये सब कुछ कभी,
अपने खालीपन को मैंने ये किस्सा सुनाया हो।




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