Tuesday, June 18, 2013

बड़बड़ाहट

शाम को थकान, हल्की हवा सी बहती है। कभी माथे पर लगती है । कभी मेरे पाँव पर अपना पाँव रखते हुए गुज़र जाती है। कभी पूरे बदन को छू देती है। दिनभर क्या किया ? किसके लिए किया ? ये सवाल क्यों पूछ रहा हूँ? बरामदे से दिखते पेड़ रोज़ शाम को वही खड़े मिलत हैं। मेरा इंतज़ार करते हैं या मेरी तरफ पीठ किये खड़े है कुछ पता नहीं। हम जैसे पर्यावरण की चिंता का नाटक करते है, वैसे नाटक ये भी करते हैं क्या इंसानों के लिए? बाहर बैठो तो मुझसे पहले, ठंडी हवा चाय चख लेती है। चाय पीना भी अब रसम है। बाहर सड़क पर शोर कायम है। सड़क की भी अपनी कोई पार्टी होगी। शोर मचाने वाले इसके कार्यकर्त्ता। बीच-बीच में आवाज़ कर के, खुद को जिंदा बताने का ढोंग चलता रहेगा।रात के ९ बजने को है, और सूरज है कि असमान में टंगा हुआ है। कितने तारे लगेंगे इसे धकेलने के लिए? रोज़ देर तलक यहीं घूमता रहता है। जाने का नाम नहीं लेता। शायद पहाड़ी पार इसका भी दफ़्तर है। लोग चाँद निकलने का इंतज़ार कर रहे हैं। यहाँ चाँद निकलेगा, वहां लोग 'गुलज़ार' हो जायेंगे। इंतज़ार शाश्वत है। ये भी एक नौकरी है। शाम होते ही रात का इंतज़ार। रात गिरे तो नींद का। सुबह अधजगे सपनों में अलार्म बजने का इंतज़ार। सबमें समय चल रहा है। हम घड़ी हो गए हैं। जंतर मंतर कब होंगे पता नहीं। दूसरों के घर से आता ए.सी. का शोर गरमी और बढ़ा रहा है। कॉलोनी है या फैक्ट्री? इंसान है या मशीन?  घड़ी में फिर ९:३० बज गए। भोजन का समय। घड़ी हमारी माँ है। पड़ोसी जोर से टीवी चलाए हुए है। समझदार लोग तो टीवी नहीं देखते। बस, टीवी में दिखते हैं। जो अपनी नक़ल, सबसे अच्छी उतारे - वही हिट है। ये लेख भी एक नक़ल है। नकल ही असल है।

लेख का फॉर्मेट रवीशजी के "पागलनामा" से प्रेरित/कॉपी किया है।
http://naisadak.blogspot.com/

No comments:

Post a Comment