Friday, October 31, 2014

एक सवाल

दो सहमी, सिमटी आँखों में
आकाश डुबाना होता,
माथे पर गिरती वादी से
एक चाँद उठाना होता,
ग्रहण लगाते उस तिल से
फिर नज़र बचाना होता, 
सोचता हूँ मैं क्या करता ?
जो एक अक्स बनाना होता !

होठों के चौबारे पे
चुप्पी जलाई होती,
नाक पे बैठे हीरे से
कुछ साँस कटाई होती, 
एक ठहरे,सोए किस्से में
क़िरदार जगाना होता,
उड़ती हुई एक नज़्म को 
काग़ज़ पे चलाना होता,  
सोचता हूँ मैं क्या करता ?
जो एक अक्स बनाना होता !

गलियों सी उलझी साँसों में,
एक रूह छुपानी होती ।
दो रेखाओं के बीच चले,
वो आँख भी लानी होती ।
कोरे कागज़ की कोख़ से 
एक नूर चुराना होता,
सोचता हूँ मैं क्या करता ?
जो एक अक्स बनाना होता !

2 comments:

  1. जो मैं पढ़ रहा हूँ आपकी रचना में अच्छा लग रहा है रचना बहुत खुबसूरत है लगता है प्रेरणा भी.......मुझे इस कविता की आत्मा बहुत प्रभावी जान पड़ी ...... दो सहमी, सिमटी आँखों में
    आकाश डुबाना होता,
    माथे पर गिरती वादी से
    एक चाँद उठाना होता,
    ग्रहण लगाते उस तिल से
    फिर नज़र बचाना होता,
    सोचता हूँ मैं क्या करता ?
    जो एक अक्स बनाना होता !

    ............................ये बहुत अच्छा चित्रण है

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