एक रात हुआ कुछ ऐसा -
एक नज़्म उतर आई,
मेरी इन बंद आँखों में।
पहले कुछ खटका,
जैसे बिना खटखटाए -
किसी खाली कमरे में,
घुस आया हो एक अजनबी।
अगली कुछ रातों तक,
मिलती रही झलक जिसकी,
इन पलकों के बंद झरोंखों से।
दिन भर आखों में,
लिपटा रहता था वो एक ख्याल,
जिसे एक सयाने शायर ने शायद,
आखों की महकती खुशबू कहा था।
वो - जिसकी शक्ल केवल,
एक तखय्युल1 था-
अब पास आकर बैठ जाती थी,
हर रोज़ नींद के आने से पहले।
वो पूछती मुझसे कई सवाल -
जिन्हें कुछ वक़्त पहले,
मैं जवाब समझकर किसी का ,
कहीं छोड़ आया था पीछे ।
फिर शुरू हुआ वो लड़कपन,
पहली कुछ मुलाक़ातों का-
कुछ अधूरे से जुमले,
कुछ बेजुबां, बेहर्फ़ ज़स्बात।
मैं लिखता कुछ लाइने,
जिन्हें तुम मिटाकर,
फिर अधूरा कर देती।
और इन मिटते बनते फसलों के बीच,
कुछ-कुछ हम-तुम पूरे होते रहते।
जब कभी दो लफ़्ज़ों के
बीच की खाली जगह से डरकर,
मैं किनारे पर रुक जाता,
तुम हाथ थामकर मेरा,
ले चलती मुझे अपने संग -
उस अफ़क2 तक -
जहाँ लफ्ज़ और जज़्बात मिलते हैं।
फिर वहीं किसी शब्द
के ऊपर खिंची एक लकीर पर
पड़े रहते हम दोनों देर तलक
जब तक न होती सेहर।
और साथ साथ बैठे,
बिठाते अपनी दिल की धड़कनों,
पर फिर एक नई ब'हर3।
और इस तरह हर रोज़
बाहर, खिड़की से जैसे-जैसे
रात गुज़रती रहती,
और अधूरा चाँद होता पूरा।
अंदर, तुम भी मेरे संग वैसे-वैसे
और जवां होती रहती।
तुम में,अपना नाम रखने से पहले,
मिलवाया था मैंने तुम्हें अपने यार- सपनों से।
वो मेरे दोस्त सपने भी,
उस दिन से मिलने नहीं आये मुझसे ।
शायद, जागे रहते थे वो भी,
तेरे ही किसी ख्याल में।
फिर एक रात, नींद आने पर भी,
जब तुम नहीं गयी वापस।
हुआ वही,
जो होता है रात की बेहोशी में अक्सर।
जिसका ज़िक्र न फिर तुमने कभी किया ,
और न मैंने ही कुछ लिखा उस बारे में कभी ।
अगले दिन सुबह उठकर -
भरकर सियाह रातों को कलम में अपनी,
एक-एक हर्फ़-ओ-लफ्ज़ को सजाया था
नुख्ता, बिंदी, पेश-ओ-ज़बर से -
जैसे दुल्हन सजी हो कोई,
पूरे सोलह श्रृंगार में।
और इतेज़ार करती रही तुम मेरा
सजी डायरी की सेज में पड़ी तनहा-
किसी मेज़ की दराज़ में,
साथ, हाथ में लिए एक गुलाब का फूल,
जो आज-तक वहां,
डायरी में मायूस सा पड़ा है ।
और मैं बेवफ़ा शायर की तरह ,
प्यार हमारा मुक्कमल होते ही
फिर निकल पड़ा था किसी दूसरी नज़्म की तलाश में।
आज अचानक, उसी डायरी का सफ़ा पलटते वक़्त
जब ज़बान पर कुछ नमकीन- सा, स्वाद आया है।
ये भूला पुराना अफसाना, फिर से मुझे याद आया है।
--------
1. imagination/fantasy
2. क्षितिज/horizon
3. लैय/meter
कि मेरे बिस्तर पर लेटते ही 
और नींद के आने से पहले,एक नज़्म उतर आई,
मेरी इन बंद आँखों में।
पहले कुछ खटका,
जैसे बिना खटखटाए -
किसी खाली कमरे में,
घुस आया हो एक अजनबी।
अगली कुछ रातों तक,
मिलती रही झलक जिसकी,
इन पलकों के बंद झरोंखों से।
दिन भर आखों में,
लिपटा रहता था वो एक ख्याल,
जिसे एक सयाने शायर ने शायद,
आखों की महकती खुशबू कहा था।
वो - जिसकी शक्ल केवल,
एक तखय्युल1 था-
अब पास आकर बैठ जाती थी,
हर रोज़ नींद के आने से पहले।
वो पूछती मुझसे कई सवाल -
जिन्हें कुछ वक़्त पहले,
मैं जवाब समझकर किसी का ,
कहीं छोड़ आया था पीछे ।
फिर शुरू हुआ वो लड़कपन,
पहली कुछ मुलाक़ातों का-
कुछ अधूरे से जुमले,
कुछ बेजुबां, बेहर्फ़ ज़स्बात।
मैं लिखता कुछ लाइने,
जिन्हें तुम मिटाकर,
फिर अधूरा कर देती।
और इन मिटते बनते फसलों के बीच,
कुछ-कुछ हम-तुम पूरे होते रहते।
जब कभी दो लफ़्ज़ों के
बीच की खाली जगह से डरकर,
मैं किनारे पर रुक जाता,
तुम हाथ थामकर मेरा,
ले चलती मुझे अपने संग -
उस अफ़क2 तक -
जहाँ लफ्ज़ और जज़्बात मिलते हैं।
फिर वहीं किसी शब्द
के ऊपर खिंची एक लकीर पर
पड़े रहते हम दोनों देर तलक
जब तक न होती सेहर।
और साथ साथ बैठे,
बिठाते अपनी दिल की धड़कनों,
पर फिर एक नई ब'हर3।
और इस तरह हर रोज़
बाहर, खिड़की से जैसे-जैसे
रात गुज़रती रहती,
और अधूरा चाँद होता पूरा।
अंदर, तुम भी मेरे संग वैसे-वैसे
और जवां होती रहती।
तुम में,अपना नाम रखने से पहले,
मिलवाया था मैंने तुम्हें अपने यार- सपनों से।
वो मेरे दोस्त सपने भी,
उस दिन से मिलने नहीं आये मुझसे ।
शायद, जागे रहते थे वो भी,
तेरे ही किसी ख्याल में।
फिर एक रात, नींद आने पर भी,
जब तुम नहीं गयी वापस।
हुआ वही,
जो होता है रात की बेहोशी में अक्सर।
जिसका ज़िक्र न फिर तुमने कभी किया ,
और न मैंने ही कुछ लिखा उस बारे में कभी ।
अगले दिन सुबह उठकर -
भरकर सियाह रातों को कलम में अपनी,
एक-एक हर्फ़-ओ-लफ्ज़ को सजाया था
नुख्ता, बिंदी, पेश-ओ-ज़बर से -
जैसे दुल्हन सजी हो कोई,
पूरे सोलह श्रृंगार में।
और इतेज़ार करती रही तुम मेरा
सजी डायरी की सेज में पड़ी तनहा-
किसी मेज़ की दराज़ में,
साथ, हाथ में लिए एक गुलाब का फूल,
जो आज-तक वहां,
डायरी में मायूस सा पड़ा है ।
और मैं बेवफ़ा शायर की तरह ,
प्यार हमारा मुक्कमल होते ही
फिर निकल पड़ा था किसी दूसरी नज़्म की तलाश में।
आज अचानक, उसी डायरी का सफ़ा पलटते वक़्त
जब ज़बान पर कुछ नमकीन- सा, स्वाद आया है।
ये भूला पुराना अफसाना, फिर से मुझे याद आया है।
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1. imagination/fantasy
2. क्षितिज/horizon
3. लैय/meter
 
पैगाम के बाद, ये अब तक की सबसे बेहतरीन रचना ! शानदार :)
ReplyDeletebahut khub
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