Sunday, December 22, 2013

छोटी मोटी नज़्में - ४

एक शाम .... 

यूँ बर्फ़ पर पसरी हुई,
ये शाम कुछ नीली पड़ी ।
हवा चली जो ज़ोर से,
ज़रा सी फिर सिहर उठी ।
बेजान सूखे पेड़ों की,
तेज़ शाखों से गुज़र के ।
खरोंच लगाती शाम चली,
यूँ उठ के मेरे दरीचे से ।
फिर सामने सड़क पार वाले,
बस स्टॉप के नीचे ।
सिमटी हुई खड़ी रही, शाम
फुटपाथ से थोड़े पीछे  ।
अब लैम्प पोस्ट की गर्मी में,
कुछ कुछ पिघलती जाती है ।
जैसे प्रेम की प्यासी बिरहन, 
दो बाहों में डूबती जाती है । 
यूँही और लिपटी रही तो,
ये शाम भी सुलग जाएगी । 
जाते-जाते अपने पीछे,
रात का, काला निशां छोड़ जाएगी ।

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सुबह का रंग 

नींद तले, सपनों के,
काफ़िले मिलते है जहाँ ।
रात गुज़रती है, यादों के,
टुकड़ों पर से वहाँ ।
यूँ ज़ख़्मी क़दमों से चलकर,
लड़ख़ड़ा के गुज़र जाती है ।
ये रात रोज़ कुछ इस तरह , 
सुबह को लाल कर जाती है ।

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बस यूँहीं ....

क़दम रुकते नहीं,
एक राह निकल पड़ती है।
साँस थमते ही,
एक आह निकल पड़ती है ।
जुस्तजूँ के जुगनू,
जगमाते हैं रातों में ।
यादों के पतंगे,
फड़फड़ाते बरसातों में ।
सड़क पर चलती आवाज़,
दिल से गुज़र जाती है ।
आँखों से निकलकर बात,
शहर में खो जाती है ।
खाली पड़ा ये दिन,
दोपहर सा बजता है ।
कहानी बिना किरदार कहीं,
पन्नों में भटकता है ।
दिन की थकन, रातों की,
करवटों में बांटने के लिए ।
घड़ी की सुइयाँ चलती है बस,
धड़कने गिनाने के लिए ।
अपने ही मोम तले कभी,
जैसे शमा डूब जाती है ।
रात भी अपने आस्मां तले,
कभी झुककर टूट जाती है ।
दिन के खालीपन से,
नीदें भरा करती हैं ।
सीने की ठंडी आहों से,
रातें जला करती हैं ।
हर दिल, हर दिन,
कितनी साँसे जीता है । 
सुना है इस शहर में,
कोई मुझसा रहता है।  

Thursday, December 5, 2013

मन

बस यूँहीं ....

कितनी परतें छिली हैं,
कितनी रूहें छानी हैं,
एक अकेले मन की ही,
ये कैसी मनमानी है ?

कितनी सासें झुलसी हैं,
कितनी प्यास जगाई है,
एक सुलगते मन ने ही,
कितनी रात जलाई है ।

कतरा कतरा किस्सों ने,
कतरा कतरा काटा है,
शोर मचाते इस मन में,
धड़कन का सन्नाटा है ।

भँवर बना के लम्हों के,
जाल बिछा के रिश्तों के,
कौन कहाँ हिसाब करे,
मन में मन के हिस्सों के । 

सीधे मन की उलझन में, 
जागे मन की करवट में, 
मन ही मन की बातों में,
मन की बिखरी यादों में,
एक मन बचा के रखना तुम,
मन के इन गलियारों में ।

Wednesday, December 4, 2013

बिना मीटर ग़ज़ल - ५

सफ़र जुदा होने पर, साथ छुट जाएँगे क्या ?
रास्ते मिलने पर, दिल भी मिल जाएँगे क्या ?

मौसमों के शहर में, कुछ महीने दूरी सही ।
बर्फ़ पिघलने पे, फ़ासले भी गल जाएँगे क्या ?

इस सियासी मामूरे में, इंतखाबी बाज़ार हैं । 
वो खरीदते खरीदते, खुद बिक जाएँगे क्या ?

दीने नासेह ने यहाँ, अहले-खुदाई छाप दी ।
ज़रा उनसे पूछो, ख़त एक लिख पाएँगे क्या ?

ज़ख्म भरता ही नहीं, एक बेचारे सवाल से ।
जो भर गए नासूर सब, तो वो सहलाएँगे क्या ?

सालों सागर में रखी, मय और नशीली होगी
तमाम उम्र जुस्तजू रखी, आप संभल पाएँगे क्या ?

रात लम्बी ही सही, इस जागते से ख्वाब में ।
एक बार आँख खुल गई, फिर सो पाएँगे क्या ?

चाचा ग़ालिब से माफ़ी माँगते हुए )
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१- नगर 
२- चुनावी
३- उपदेशक 
४- शराब कि बोतल 

Saturday, November 16, 2013

चलता है

पेड़ हैठूँठ है
चलता है, पतझड़ है।
आँसू है, गिरता है, 
चलता है, पतझड़ है।। 

बर्फ़ है, हवा है,
चलता है, ठंडा है।
मिसरा है, जलता है,
चलता है, ठंडा है ।।

लू है, ताप है,
चलता है, घाम है ।
सीना है, आग है,
चलता है, घाम है ।। 

मिट्टी है, गीली है,
चलता है, बरसात है।
तकिया है, सीली है,
चलता है, बरसात है।।

( आँगन है, गीला है,
चलता है, बरसात है।
लम्हा है, फ़िसला है,
चलता है, बरसात है।।)

तितली है, महकी है,
चलता है, ऋतुराज है।
दुपट्टा है, उड़ता है, 
चलता है, ऋतुराज है।।


Saturday, November 2, 2013

ये रात है शहर कि दुआ कीजिए

ये रात है शहर कि दुआ कीजिए।
ये चाल है पहर की दुआ कीजिए।

उँगलियों से तारों को बुझाते हो क्यों?
दब गए हैं जो छाले, उगाते हो क्यों?
खाली दिन को आँसुयों से न भरा कीजिए।
ये रात है शहर कि दुआ कीजिए। 

उजालों की बस्ती में अँधेरा कहाँ है ?
दीवानों की मजलिस में अकेला कहाँ है ?
ज़रा उनकी नज़र को पढ़ा कीजिए।
ये रात है शहर कि दुआ कीजिए।

कल जुलूसों में भर्ती हुए वो कहाँ हैं?
इक़लाबी शहादत में अपने कहाँ हैं? 
इतवार को न अनशन रखा कीजिए।
है रात ये शहर कि दुआ कीजिए। 

भुखमरी को, दावतों पर, समझते हैं वो ।
वाइन पीते हुए, सूखे से लड़ते हैं जो ।
अनपढ़ों से योजनाएँ लिखवा लीजिए। 
है रात ये शहर कि दुआ कीजिए। 

बाज़ारों को रोशन किया है किसी ने
मकानों को कर्ज़ में डुबोया किसी ने
खुशियों की मेहर को अदा कीजिए। 
है रात ये शहर कि दुआ कीजिए। 

जो दिन थे अपने, वो जाने कहाँ है ?
जो रातें थी उनकी, न जाने कहाँ है ?
यादों को करवटों में बुना कीजिए।
है रात ये शहर कि दुआ कीजिए। 

पुराने ख़तों को जो पढ़ते हो तुम,
बेनाम लिफ़ाफ़ों में रखते हो तुम, 
बातें है बहुत, कुछ कहा कीजिए।
है रात ये शहर कि दुआ कीजिए। 

शहर को जो अपना बताते हैं वो,
महफ़िलों में जो किस्से सुनाते हैं वो,
सन्नाटों को भी बेहर पर रखा कीजिये।
है रात ये शहर कि दुआ कीजिए। 

जागी जागी ये सड़कें कहाँ जा रही हैं ?
सोये सोये से राही को भटका रही हैं।
गलियों से सेहर को बुला लीजिए। 
है रात ये शहर कि दुआ कीजिए। 


Monday, October 28, 2013

पेड़

धूप में धुले धुले ,
ये पेड़ जब चमकते हैं।
हवा चले जो ज़ोर से,
तो झूम के लिपटते हैं।
शाख़ को ये मनचले,
यहाँ वहाँ घुमाकर।
उड़ती हुई पतंग को,
फिर कूद कर लपकते हैं।
बादलों को थामकर -
टहनियों की डोर से।
नहा के निकले बारिशों से,
ज़ुल्फ़ को झटकते हैं।
गुज़रे जो पास से कभी,
हसीन दिल वो गुलबदन।
पत्तों पर लिखे आवारा ख़त,
हौले से फिर टपकते हैं।
वो नाम गोद शाखों पर,
यार के खुमार में।
इसे प्यार के करार का,
वो दस्तख़त समझते हैं ।
उड़ जाते हैं परिंदे जब,
काम की तलाश में। 
ये गोद लेके घोंसलों को,
लोरिया सुनाते हैं।
उस फल को देखो रात में, 
कहते हैं चाँद वो जिसे।
सूरज की ताप में उसे, 
हर रोज़ वो पकाते है।  
जल जाती है जो टहनियां,
चाँदनी की आग में। 
तारों की छाँव के तले,
फिर उँगलियाँ बुझाते हैं।
गर्मियों में ताप से,
जब छुट्टियां चटकती हैं। 
ये ठंडी छाँव की वहीं, 
कुल्फ़ियां सजाते हैं।
जो कारे-कारे बादलों को,
श्याम खींच लाते हैं। 
सावन पे झूलते हुए, 
ये कजरिया सुनाते हैं।

Sunday, October 27, 2013

छोटी मोटी नज्में - ३

जूं
सर पर चढ़ा था कबसे,
भागता फिरता था हर कहीं,
खुजली सी रहती थी हर समय।
कितनी दफ़े कुरेदा, 
कितनी दफ़े धोया,
फिर भी निकला नहीं ।
एक दिन भागता हुआ
ठहर गया कहीं -
और लपक लिया मैंने। 
 हाथ आ ही गया आखिर।
नाखून के बीच रखकर
दाब दिया मैंने।
ना खून निकला
न दर्द हुआ
बस एक हलकी सी
"टिक" सी आवाज़ भर आई ।
वो एक लम्हा था वक़्त का -
सर पर चढ़ा था कबसे,
भागता फिरता था हर कहीं …
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फ़सल 
मेरी आँखों को चूमकर तुमने ,
एक सपना बो दिया था उस दिन। 
मैंने भी रोज़ सींची थी ,
आँखों की वो ज़मीन -
  कभी सूखी न रहने दी । 
बहुत दिन हो गए,
पर सपना अभी तक वो उगा नहीं ।
शायद अबकी, 
पानी कुछ ज्यादा खारा था ।  
शायद अबकी, 
कुछ बंजर सी गई है वो ज़मीन ।

Friday, October 18, 2013

तुमसे मिलकर, ऐसा लगा.…

जब से तुझसे मैं मिलने लगी हूँ, 
कुछ कुछ अधूरी सी रहने लगी हूँ।

सिमटती जाती हूँ जितनी तुझमें, 
खुद में उतनी ही बिखरने लगी हूँ।

भूल जाती हूँ मैं अपना ही पता,
गलियों से तेरी जो गुज़रने लगी हूँ। 

तेरे पास जितनी जाती हूँ मैं ,
दूर खुद से उतनी ही रहने लगी हूँ।

दिन गुजारें हैं जबसे खयालों में तेरे ,
खाली रातों से मैं रोज़ कटने लगी हूँ । 

चाहत में तेरी मरना न आया, 
तगाफुल में तेरे जीने लगी हूँ।   

ख़त जो तेरे फिर से पढ़ने लगी हूँ।
शायरी भी कुछ कुछ करने लगी हूँ।।  
   

Monday, October 7, 2013

रात की बात

बात बस इतनी सी है,
कि रात बस इतनी सी है ।
रात जो इतनी सी है,
वो आँख पर अटकी सी है ।

ख्वाब का टुकड़ा है साँसों में अटका ।
चाँद का मुखड़ा भी आस्मां में लटका ।
दे आता है कौन इन रातों को आवाजें ?
दिल की ये बातें कोई ना बता दे !  
शहर में ये ख़ामोशी बस्ती है कैसे ?
होंठों पर उनके ये सजती है कैसे ?
तुम्हीं अब बताओ की जाना कहाँ है ?
जा-जा के ये रातें फिर रूकती है कैसे ?
खाव्बों से पूछो ये क्यों खो गए हैं ?
बादल पर सर रखकर क्यों सो गए हैं ?
ये यादें चौराहों पर लटकी मिलेंगी ।
सुबह होने पर भी भटकती रहेंगी । 
अंगड़ाया आस्मां तो वो तारा भी टूटा,
जिसे समझा था घर वो सहारा भी छूटा।
घुम गए हैं जो नाम, कोई तो लौटा दो, 
रात की बाहों पर उनको गुदवादो । 
कभी तो कहोगे कि अब लौट आओ,
सफ़र के इन छालों को अब तो मिटाओ ।
कही न कभी हों वो बातें सुनाओ।
आँख जो झपकी तो रात फिसल जाएगी ।
रात जो फिसली तो बात गुज़र जाएगी ।
क्योंकि -
बात बस इतनी सी है,
कि रात बस इतनी सी है ।
रात जो इतनी सी है,
वो आँख पर अटकी सी है ।। 

Tuesday, September 3, 2013

बस यूँ हीं

लौट आना फिर उसी सफ़र में, 
जहाँ कभी वो चला नहीं।
भरकर थकान यादों में अपनी, 
जहाँ कभी वो रुका नहीं।
फिर वही ज़िन्दगी को मोड़ते रहना, 
कि कोई कोना कभी चुभे नहीं।
फिर उसी चुभन को रोते रहना,
कि दर्द अब कोई देता नहीं।
राज़ दिल के लबों पर रखना,
और कहना कि कोई सुनता नहीं।
बात गैरों से करते रहना, 
और अपना किसी को कहना नहीं।
चहरे पर रखना ख्वाबों की चादर,
पर आँखों को अपनी ढकना नहीं।
पढ़ते रहना ख्वाब उनके सारे, 
कि सफ़र अभी ये रुका नहीं। 

Wednesday, August 28, 2013

ऑन ड्यूटी

रोज़,
९ बजे सुबह के,
और शाम के ६ बजे।
पास के गिरीजाघर में,
बजते हैं ज़ोर-ज़ोर से घंटे ।
रोज़,
मैं ९ बजे जाता हूँ दफ़्तर, 
और ६ पर लौट आता हूँ घर।
कल,
रविवार की सुबह
अपने समय से,
फिर बज गया 
गिरजाघर का घंटा।
मैं,
बालकनी में बैठा 
गोद में रखकर अखबार,
चाय पी रहा था।
हाँ,
इंसान होने के कुछ तो फायदे हैं ।

Sunday, August 11, 2013

छोटी मोटी नज्में - 2

शाम का नक्शा 
हर रोज़,
जब शाम उतरती है
दिन के शजर से ।
एक नक्शा छोड़ जाती है
बरामदे की दीवार पर मेरे ।
रात भर भटकता हूँ,
उस नक़्शे में दबी
   वक़्त की सुनसान गलियों में । 
कभी तो मिल जाए
वो एक लम्हा, 
जिसे जी कर कभी
मैं कहीं भूल आया हूँ ।


इंतज़ार
इंतज़ार करते रहे वो दोनों,
कभी आग लगेगी इस इंतज़ार को।
जिसकी राख मलकर अपने जिस्म पर,
फिर एक नई चाहत उगा लेंगे दोनों।
पर अब इस भट्टी में इतनी आग कहाँ ?
बस ठंडी आहें जलती हैं।
बरसती हैं जब यादें कहीं,
कोई दबी उम्मीद
फिर फट पड़ती है।


टिंकू की उलझन  
टांग कर बारिशें ,
अपनी छत्री के हैंडल पर वो ।  
दूसरे सिरे से,
खोंचने लगा बादलों को ।
कल रात कहा था अम्मा ने,
मिठाई रख दी है
ऊपर, सिकहर पे । 
अब परेशान बेचारा घूम रहा है । 
कि ये "ऊपर" से 
रस तो टपक रहा है । 
पर मिठाई छुपाई है कहाँ आखिर
इसका पता क्यों नहीं लग रहा है?

Saturday, August 3, 2013

मेलबॉक्स


घर के किसी बूढ़े की तरह, वो मेलबॉक्स हमेशा बाहर बालकनी से अकेला लटका हुआ मिलता है। किसी (रिटायर्ड) बुज़ुर्ग की तरह ही, वो गाँव/घर से आने वाली किसी खबर के इंतज़ार में, अपनी खाली आँखों को सामने की सूनी सड़क पर टिकाए रहता है। ठंड, बरसात, गर्मी- बारह महीने ये किसी हठयोगी की तरह एक पाँव पर खड़ा दिख जाएगा। दोनों ओर कान पर लाल रंग का ऐनक चढ़ाए, हर आने वाले संदेसे को पढ़ने के लिए तत्पर। लोकगीत की किसी बिरहन के जैसे इसका इंतज़ार भी प्राचीन और शाश्वत है। पर अब ज़मीन में धंसी इसकी बुनियाद हिलने लगी है। तेज़ हवा चलने पर कभी कभार ज़रा टेढ़ा हो जाता है। पूरा शहर का शहर गुज़र जाता है इसके सामने से, पर कोई इससे होकर नहीं गुज़रता। कभी कभी एक चिड़िया बैठी देखी है इस पर। शायद वो भी किसी अपने की ख़बर का इंतज़ार करती होगी। इसे देखकर लगता है जैसे अभी किसी भी वक़्त खड़े-खड़े, अपने बगल से छड़ी निकालकर, मोहल्ले के बाकी रिटायर्ड बूढों के संग, सैर पर निकल पड़ेगा। या आवाज़ लगाएगा पास से किसी गुजरने वाले को। और कई बार कह चुकी, किसी बिना मतलब वाली पुरानी बात को, फिर पूरी गंभीरता से दोहराएगा। पहले डाकिया आता था तो शिव मंदिर के बाहर विराजे नंदी बैल की तरह इसे, फूल के रूप में कुछ चिट्ठियां चढ़ा जाता था। अब तो बस क्रेडिट कार्ड के बिल और विज्ञापन ही पढ़ने को मिलते हैं इसे। शायद अब बाज़ार नए ज़माने का मंदिर है। पास का सुपरमार्केट और पीछे की गली वाला अक्यूपंक्चर स्पेशलिस्ट आए दिन कूपन, रिबेट, नयी सेल का संदेसा भिजवा कर बुलाते रहते हैं। ओल्ड फैशन हो चुकी चिट्ठी अब कोई लिखता नहीं। न्यू जनरेशन के एसएमएस इन पुराने बक्सों में आते नहीं।  संदेश सरल हो गए हैं, और रिश्ते संक्षिप्त। इनबॉक्स भी अब आभासी दुनिया के अनजाने रिश्तों के एहसास (पोस्ट्स/नोटीफ़िकेशन, आदि) से भरा पड़ा है। वहां भी किसी अपने की आवाज़ सुनने को नहीं मिलती। सब एक दुसरे को सुनने के इंतज़ार में हैं। पर कोई कुछ कहता नहीं। 

Sunday, July 21, 2013

बड़बड़ाहट 3

कितनी ही आँखों में ये गोल-गोल, काली रातें तैरती रहती हैं । अपनी अपनी रातें सब ने पलकों में बचाई रखी हैं। सब चाँद को देखते रहते हैं और किसी आशिक की तरह, मौका पाते ही, सपने पलकों के गेट को फांद कर आँखों में चले आते हैं ।सपने भी तरह तरह के होते हैं, जैसे तरह तरह के आशिक होते हैं । कुछ ही सपने अपने होते हैं। कुछ सपने केवल सपने होते हैं । रात टपकती रहती है आसमान से । नींद भीगती रहती है इस बारिश में । डर भी लगा रहता है न जाने कब का बोया सपना आज फूट पड़े । कितनी ही बीती रातों को मिटा देने का मन करता है । कितने ही रातों में मिट जाने का मन करता है । पर कुछ मिटता नहीं । रात बस अपना काला रंग ऊँगलियों पर छोड़ कर फिर उड़ जाती है । रात में, सड़कों पर चलता शोर भी शहर का सपना है । कुछ जगमगाते, कुछ भुजे हुए। कुछ दूर से एक दुसरे को आवाज़ देते हुए । ध्यान से सुनो कभी क्या कहते हैं ये एक दुसरे से । कितनी भी खिड़कियाँ बंद कर लो, कहीं न कहीं से आवाज़ आती रहती है । न जाने अब की ये कौन सी खिड़की बंद कर दी, जो अपनी ही आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती । बस शोर ही नज़र आता है । रात का क्या है, कट ही जाएगी । करवटों के मोड़ से गुज़रती हुई, सुबह की चोटी पर पहुँच ही जाएगी । रास्ते में, कुछ सपनों में भीगना होगा । वो भी सुबह की हवा में सूख जाएँगे । पर कुछ सपनों की सीलन, दिन के आने पर भी लगी रह जाती है । कुछ बातें कहानी और कविता के बीच से निकल जाती हैं। कुछ रातें, नींद और सपनों के बीच टंगी रह जाती हैं ।

Friday, July 19, 2013

छोटी मोटी नज्में - १

तिनका 
असमान में उड़ते पंछी से,
गिर गया था एक लम्हा कहीं।
तोड़ लाया था वो जिसे,
एक वक़्त की लरज़ती शाख़ से।
ऐसी ही उड़ती शामों को, 
तनहा, छत पर उतरते देखा है। 
ऐसे ही गिरते तिनकों को, 
दामन में संभाले रखा है।
हर बार ये कोशिश करता हूँ,
इन तिनकों को मिलाकर मैं
एक घोंसला फिर बना सकूँ,
जो टूट गया था आँधी में
कुछ तिनके मगर हर बार,
फिर भी कम पड़ जाते हैं 
कुछ तिनके जो उस बार,
तुम ले गयी थी संग अपने 

ढलता सूरज 
पेड़ की ऊँची सलाखों के पीछे,
एक रात का मुजरिम खड़ा है।
भाग रहा था जो दिन भर से,
उसे शाम को जाकर पकड़ा है।
जब पहरा देते चाँद को,
रात में झपकी सी लग जाएगी।
आस्मां से लटकती,
तारों की चाभी,
फिर इसके हाथ लग जाएगी।
वही चोर पुलिस का खेल,
कल फिर से खेला जाएगा।
पर आस्मां है ये धरती नहीं,
चोर फिरसे पकड़ा जायेगा।

इंतज़ार 
एक शाम,
दफ्तर से लौटते हुए,
मिल गया वो मुझे।
दोराहे पर खड़ा,
तन्हा, बेमानी, बुझा-बुझा।
लगाए अपनी ठहरी निगाहों को,
उस पीछे को जाते रस्ते पर।
आँखों का सूनापन पोंछकर,
मुझे देखा और मेरा भार -
दफ्तर का सूटकेस,
ले लिया मेरे हाथों से।
फिर निकल पड़ा मेरे संग वो,
नीचे झुकाए अपने सर को -
(शायद कुछ खोज रहा था)
आज का दिन।
मेरे साथ मेरे घर को लौट चला।


साया 
एक हल्की गर्म दोपहरी में,

एक तेज़ हवा के झोंके से।
गिर गई एक छाँव कोई,
उस शाख़ के तिरछे कोने से।
इससे पहले शायर कोई,
रख ले इसको नज्मों में।
पहना दूँ जाकर ये साया,
अपने हमसाए के क़दमों में।

Sunday, July 14, 2013

बिना मीटर की ग़ज़ल - ४

महफ़िल में तेरी बात यूँही चलती रही रातभर,
जा-जा के तेरी याद यूँही रूकती रही रातभर ।१। 

हमबिस्तर हो गए हैं जो कुछ सपने तुम्हारे, 
ठंडी सफ़ेद चादर भी, जलती रही रातभर ।२। 

बहुत संभाले रखा था यादों को तुम्हारी हमने,
क्या हुआ कि आखों से वो, गिरती रही रातभर ।३। 

एक शेर में जो ज़िक्र आ गया उनका कभी,
पूरी ग़ज़ल ही हमारी, महकती रही रातभर ।४।  

कितने सपने बिठाए रखे हैं पलकों पर तुमने,
जो हर बार उठ-उठ कर, झुकती रही रातभर ।५।  

बड़े चैन से सोए थे हम तगाफुल में तेरे,
फिर इक सितम की चाह हमें, चुभती रही रातभर ।६। 

चाँदनी की ठंडक टूटते तारों से पूछो,
जो एक-एक कर शमा को, भुझाती रही रातभर ।७। 

Wednesday, July 10, 2013

खामोशियाँ

जीवन में कुछ भी ओरिजिनल या मौलिक न करने की अपनी भीष्म प्रतिज्ञा (ये फ्रेज़ भी मौलिक नहीं है) को जारी रखते हुए, इस बार का ये नया पोस्ट। 
फिल्म लुटेरा का गीत "मनमर्जियां" बहुत भा गया है। तो सोचा इसको कुछ और अपना बना लिया जाए। एक प्रयोग किया है । इस गाने की धुन पर अपने शब्द रखने की कोशिश की है। कैसा लिख पाया हूँ ये तो पता नहीं, पर एक बात तय है। अब से यूँ ही हर किसी नए गीत को सुनकर उसके गीतकार को गाली देना अब कम हो जाएगा। धुन पर लिखने में हालत ख़राब हो गई। उसके बाद भी कुछ ख़ास नतीजा नहीं निकला। बहरहाल, अब भूमिका बाँधने की इस महान परंपरा का अंत यहीं होता है। नीचे ओरिजिनल गाने का लिंक दिया है। एक बार यूँही पढ़ लेने के बाद, अपनी बुलंद आवाज़ में इस सस्ती रचना को साथ में गायें। कोई रॉयल्टी फ़ीस चार्ज नहीं की जाएगी। आस-पास वाली वालों की गेरेंटी अपनी नहीं। ट्राई एट योर ओन रिस्क।  

ओरिजिनल गीत: मनमर्जियां (http://www.youtube.com/watch?v=QqSrWi2GqQA)

(धुन,आदि का क्रडिट मौलिक रचनाकारों का है। No Copyright infringement intended )
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डुप्लीकेट माल:  खामोशियाँ

बातों की ये धड़कन, कैसे सुने?
पूछा कई दफ़ा, उसने।
आखों का ये दर्पण, क्या कह गया?
क्या कभी गौर किया, उसने?

दिल ही दिल में
बात करती
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
लफ्ज़ ख़र्चे
और पायीं
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।

राज़ अपने
ख़ुद बताती
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
हलकी बातें
पर है भारी 
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।

उम्र भर की
है कहानी
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
ख़त में लिपटी
मुस्कुराती
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।

साँसों में थी
जा के उलझी,
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।

ख्वाब बोया
और उगा ली
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।
आखों में थी
यूँ सजाई 
खामोशियाँ, खामोशियाँ ।



Friday, July 5, 2013

कौन लुटा आखिर ?

कुछ दिनों पहले फिल्म लुटेरा देखी। हाल-फिलहाल में ऐसी कई फिल्म देखीं हैं, जिनपर कुछ कहने या लिखने का मन कर रहा था। पर कभी लिखा नहीं। इस बार पहली कोशिश की है, एक फ़िल्म को ख़ास पहलू से देखने की। पर आगे कुछ पढ़ने से पहले जनहित में जारी ये सूचना ज़रूर पढ़ लें - मैं कोई फ़िल्म समीक्ष नहीं हूँ। मूवी को फर्स्ट हाफ, इंटरवल, सेकंड हाफ आदि हिस्सों में चीर फाड़कर, उसकी विवेचना/अध्यन करना नहीं आता। और ना ही ये करना चाहता हूँ। फिल्म देखकर जो कुछ महसूस हुआ बस वो बाटने का प्रयास किया है। फ़िल्म समीक्षा के फिक्स्ड कम्पार्टमेंट - पटकथा, निर्दशन, अभिनय, आदि में सफ़र कुछ उबाऊ सा हो जाता है। वैसे भी इन सबके बारे में, और लोग ज्यादा अच्छा बता पाएंगे।

लुटेरा देखे २ दिन के ऊपर हो गए हैं। इसमें अच्छी बात ये है कि फ़िल्म देखने के नियर-टर्म इफ़ेक्ट- जैसे ज़हन में गूँजते मूवी के सीन/गाने - अब कम हो चुके हैं। पर नुकसान भी है कि कुछ बातें अधूरी रह जाएँगी। खैर, ये फिल्म देश की आज़ादी के कुछ ही वर्षों बाद के समय में सेट है और इसकी शुरूआत होती है बंगाल के एक गाँव में मनाई जा रही रामलीला के एक सीन से। आप ५-१० मिं में समझ जाते हैं कि कहानी की पृष्ठभूमि कैसी है। ज़मींदार बाबू कुरसी पर बैठे हैं। मुनीमजी को चिंता है कि सरकार ज़मींदारी बर्खास्त करने वाली है। पर ज़मींदार साहब का भरोसा नवोदित भारत सरकार से ज्यादा उनकी छड़ी के सहारे टिके इतिहास पर है। इन सबके बीच आपकी नज़र बेफिक्री से रामलीला का आनंद उठाती पाखी (सोनाक्षी) पर जाती है। इससे पहले की पाखी खांसना शुरू करें, आपको कुछ कुछ आराम आने लगता है। किसी जानी-अनजानी, सुकून की दुनिया की ओर बढ़ने लगते हैं। सन-१९५०, हवेली, ज़मींदार, बंगाल, पुरातत्व विभाग से आया नायक। कुछ-कुछ देखा हुआ सा लगता है। साहिब बीवी और ग़ुलाम। कुछ पुरानी स्मृतियाँ आपकी बगल वाली कुर्सी पर आकार बैठ जाती हैं। और फिल्म भर, ये समय-समय पर आपको कोहनी मारती रहती हैं। लगता है यादों के म्यूजियम में बैठे हों। वही पुराना रेडियो। उसमें से बहती गीता दत्त की मदभरी आवाज़। पोखरे में डूबती शाम। गीली स्याही वाला फाउन्टन पैन।

फिल्म देखते समय लगता है, कि जब अधेड़ उम्र में आप कोई लघु कथा पढ़ रहे थे तो कोई चोरी से आपके ज़हन में बनती-बिगड़ती तस्वीरों को रिकॉर्ड कर रहा था। और आज उसे स्क्रीन पर ज़माने के सामने, धक् से प्रोजेक्ट कर दिया। फ़िल्म के अधिकतर समय, किसी भी सीन में २ या ३ से ज्यादा लोग नहीं दिखते। पर स्क्रीन पर भीड़ की कमी महसूस नहीं होती, अपितु सुकून देती है। कभी-कभी लगता है स्टेज पर कोई नाटक चल रहा है।

पर सवाल ये है कि अगर लूटेरा की कहानी आज के किसी महानगर में बसी होती, तो क्या ये फिल्म मुझे इतनी ही अच्छी लगती, जितनी अभी भाई है ? फिल्म में जो नायक-नायिका के बीच अनकहे पल हैं, क्या उन्हें ज़ाहिर कर देने पर संवाद और ज्यादा समझ आते? सोशल नेटवर्क पर देश के भविष्य से लेकर पापड़ और आचार की बातें चीख चीखकर करने के आज के ज़माने में, मूवी की खामोशियाँ हमारे किस खालीपन को भरती हैं? ज़मींदारी छिनती देख दिमाग में हामी, पर दिल में हलकी सी टीस क्यों उठती है?

फ़िल्म मूलतः प्रेम, मिलन, विरह जैसे कालजयी भावनाओं पर टिकी है। पर इनसे जुड़ा कुछ तो है जो काल, विकास, उदारीकरण की भेंट चढ़ चुका है। मुझे गलत न समझें। मैं कोई "गोल्डन-ऐज-सिंड्रोम" से पीड़ित नहीं हूँ।
ज़मींदारों ने अपनी हवेलियाँ, कैसे किसानों और मजदूरों की कब्र पर खड़ी की है जनता हूँ। धोखाधड़ी कोई सन-९० की देंन नहीं है। पर बात यहाँ उस चिट्ठी की है जो अब कोई लिखता नहीं। उन इशारों की है जिनकी लिपी अब लुप्त होती जा रही है। उन फुर्सत के लम्हों की है जो अब लोकल ट्रेन और डीटीसी की बस में चार हाथों से दबोच लिए जाते हैं। सब कुछ ट्विटर और फेसबुक पर जग ज़ाहिर है। सारी भावनाएँ  सोशल हो गयी हैं। गाँव में नाऊ का काम अब इन्टरनेट कर रहा है। 

फिल्म की कहानी एक फेरी टेल जैसी है। इसलिए ये किसी भी युग में एक टेल - यानि कहानी ही रहेगी। पर बहुत कुछ है जो कभी था और अब छूट गया है। हो सकता है अच्छे के लिए। शहर में मर रही शुद्ध हवा की तरह, कम होते इन्हीं ज़ज्बातों पर पूरी मूवी टिकी है। कही न कहीं उसे भुनाती भी है। शायद सच्चाई तो यह है कि सिनेमा हाल में घुसने से पहली ही हम लुटे हुए हैं। एक ले-दे कर nostalgia (विषाद) बचा है, जो फिल्म देखते समय किसी घाव से निकलते मवाद के सामान बहता रहता है। पूरी फिल्म में उसी nostalgia को खूबसूरती से परोसा है। जिसका स्वाद फिल्म देखने के बाद भी बना रहता हैं। खुशबू सिनेमा हाल के दूर तलक आती रहती है।

फ़िल्म में सोनाक्षी एक निर्भय अभिनेत्री के रूप में संवर कर आती है। अपनी बड़ी-बड़ी आखों में प्यार, longing , लालसा, गुस्सा सब समेटे हुए। फ़िल्म का म्यूजिक भी समा बाँधने में मदद करता है। बाकी लोगों का काम (अभिनय, (खासतौर से) कैमरावर्क) पसंद आया।  

"लुटेरा" में आखिर कौन लुटा-नायक, नायिका, या कोई और? किसने धोखा दिया? फिल्म देखकर अपना फ़ैसला कीजिए। फिल्म में कई खामियां हैं। कुछ अधूरापन भी है। हमारे-आपके जीवन की तरह। किसी कविता में उसके भाव- पंक्तियों की बीच कहीं छुपे होते हैं। यहाँ पर तो कई जगह से शब्द ही गायब हैं। भाव छुपे हैं - स्क्रीन पर रची गयी इस पेंटिंग के हलके गहरे रंग में। पाखी के आती-जाती साँस के सन्नाटों में। और आपके-हमारे भीतर छुपे हुए शोर में।

पोस्ट-स्क्रिप्ट: समय मिले, और हो सके तो थिएटर में ये मूवी देखकर आइयेगा। मूवी धैर्य मांगती हैं। पसंद सबकी अलग हो सकती है।पर हिंदी सिनेमा के इस बदलते दौर में, ऐसी फिल्मों को जनता का समर्थन ज़रूरी है।

Sunday, June 30, 2013

वो कौन थी ?

एक दिन रोड के किनारे मैं खड़ा,
इंतज़ार कर रहा था बस का।
सड़क के दूसरी ओर तभी,
मिली हल्की-सी झलक उसकी। 
जो लगा था उसे देखकर मुझे,
था वो 'पहली नज़र' वाला तो नहीं ?
सड़क के दो सिरों के बीच,
सैकड़ों निगाहें गुज़रती रही।
पर मेरी ये दो आखें जाकर,
उन दो आँखों पर जा टिकती रही।
एक दिन बाँध सब्र का,
जब मेरा आखिर टूट गया।
बहता चला गया मैं उसके किनारे,
और अपना किनारा छूट गया।

मिलकर उसे कुछ कहने से पहले,
मैंने उसे कुछ पढ़ना चाहा था।
क्या छपा था उसके चेहरे पर,
जो मेरी आखों ने सुनना चाहा था?
पर उसकी महकती खुशबू को,
मैं बस देखता ही रह गया।
क्या कहने आया था उसको,
ये सोचता ही रह गया।
वो सड़क किनारे का रास्ता,
आहिस्ते मेरे घर को आ गया।
हर शाम मुलाक़ात होती रही,
जीने का मज़ा आ गया।

दफ़्तर से मेरे लौट आते ही,
ख़बर उसको लग जाती थी।
शाम आँगन की मेरी फिर
उसके संग सज जाती थी।
कई बार उसके एक हाथ पर,
अपना नाम लिख देता था।
जब मिटाने लगती वो उसको,
दूजे पर ख़त रख देता था।
ख़त में छुपा हुआ फूल पढ़कर,
आज भी संभाले रखा है उसने।
आज भी महकता है वो मुसलसल,
उस गुलबदन की खुशबू से।
मेरे ज़हन में गूंजते थे, 
बस उसके अलफ़ाज़ -
वो ऐसे असरदार थे ।
कभी लगता था वो है एक ही शख्श,
या उसके अन्दर कई किरदार थे!
रातों को थामकर उसके हाथों से,
कितने किस्सों की नब्स को सुना था।
कितनी कहानियों में उसकी मैंने,
अपने ही सपनों को बुना था।
कई बार सोते सोते, 
जो मेरे सीने से वो लग जाती थी।
फिर दो धड़कनों के बीच जाने,
कितनी सदियाँ गुज़र जाती थी।

आज भी हर रात, आँख लगे से पहले-
कुछ कहते-कहते सिरहाने बैठ जाती है।
ये किताब है मेरी, ना जाने मुझसे,
ये कैसे-कैसे रिश्ते बनाती है ।

  

Saturday, June 29, 2013

बिना मीटर की ग़ज़ल - ३

उड़ के जा रहे हो जो इन बादलों के परे,
कहीं बरस न जाना इन आँखों के परे ।१।

अँधियारा बहुत है शहर में आजकल,
क्यों छुपाया है अफताब को झरोखों के परे ।२।

पाँव में लगी रह गई कुछ मिट्टी गाँव की,
निकल पड़े जब टहलने उन चिट्ठियों के परे ।३।

मुस्कुराता नहीं वो आजकल शेर पर हमारे,
क्या देखा है उसने हमें इन महफिलों के परे ? ।४।

किस पते पर ख़त लिखा करें तुझे अब हम?
सुना है फ़रिश्ते तो रहते हैं बादलों के परे ।५।

ज़रा रोककर पूछो उस थके हुए राही से, 
कभी देखा है उसने इन रास्तों के परे ।६।

मशहूर हुए हैं तेरे सितम में जीने वाले,
वरना जानता कौन है हमें इन गलियों के परे? ।७। 


Thursday, June 27, 2013

बड़बड़ाहट 2

बाहर हवा बिना मतलब, सांय सांय कर हाँफते हुए दौड़ रही है। ये हफ़्ता भी ऐसे ही हाँफता हुआ निकल जाएगा। हफ़्ते के पांच दिन, सरकारी पञ्चवर्षीय योजना की तरह गुज़र जाते हैं। इसके बाद हम भी किसी गाँव की तरह, एक योजना बनकर कलेंडर में दफ़्न हो जाएंगे। सांस धीमे से मत लिया करो। फुफ्कारो। हर जाती हुई साँस पर आने वाली साँस का भार रख कर तौलते रहो। खुद को थका हुआ घोषित करने के लिए रोज़ शाम घर लौटकर चाय पियो। नींद को चाय में डुबोते रहो। सोना मत। अभी "मीडिया हाय हाय" करना बाकी है। खुद को जिंदा बताना बाकी है। पेड मीडिया का अनपेड दर्शक दिनभर दफ़्तर में धूल खा रहा है। रात को घर लौटकर नहाओ। तौलिए से अपने शरीर पर लगे दफ़्तर को पोंछ दो। छत पर जाकर आसमान में चाँद को मत ढूँढो। इट इज़ टू ओल्ड फैशन। टीवी पर एंकर का चाँद- सा चेहरा देखिए। कौन किसको मामा बना रहा है पता नहीं। टीवी के बक्से में ७ और बक्से हैं। ये चाँद के साथ खड़े  उसके सप्तऋषि है। आप कब सन्यास ले रहे हैं? मुह खोलते ही झट से टिपण्णी निकालने की बूटी कहाँ मिलती है? टिपण्णी नहीं दे सकते तो मेरी तरह गाली देते रहिए। खुद को जिंदा होने का प्रमाण पत्र बांटते रहिए। कोई रोको इस हवा को। नहीं तो ये पेड़ हिल हिल कर जाग उठेंगे। ये कैसी हवा है? लगता है कोई सिक्कुलर का कूलर चलता छोड़ गया है। हवाई सर्वेक्षण के हेलीकाप्टर का पंखा घुमा घुमा कर नेता खुद बवंडर बन रहा है। ठीक भी है। अहम् को जिंदा रखने के लिए हेलीकाप्टर की हवा ज़रूरी है। नेता के भाषण में अपनी आवाज़ कौन सुनता है? अपनों को चिट्ठी कौन लिखता है? पहचानी आवाजों को कौन पढ़ता है? ख़रीद कर कभी न पढ़ी किताबों पर बैठकर ज़हनीयत को रद्दी में बेच दो। ख़राब से ख़राब लिखो। पर चाँद पर मत लिखना। इट इज़ टू ओल्ड फैशन। चाँद से बिंदी चुराकर ग़ालिब में नुख्ता लगाते रहो। अगला लिटरेचर फेस्टिवल झुग्गी में कराओ। मीडिया को बुलाओ। उफनते गटर की महक में कविता पढ़ो। आज ये हवा नहीं रुकेगी। आँखों से रात बह रही है। खाली दिमाग में नींद गूँज रही है। खाली तो पेट भी है। खाली पेट की आवाज़ ही अंतरात्मा की असली आवाज़ है। मेरी तरह हमेशा दूसरे के चले हुए रास्ते पर चलो। किसी और की मौलिकता को अपने ट्रेसिंग पेपर से ढँक दो। ये लेख भी किसी दुसरे का है। दूसरा ही अपना है। अपनों को फेसबुक पर ढूँढ़ते रहो। हवा को चुप करा कर सुला दो। इतनी जिंदा आवाजों से अब बेचैनी होती है। 


लेख का फॉर्मेट रवीशजी के "पागलनामा" से प्रेरित/कॉपी किया है।
http://naisadak.blogspot.com/

Monday, June 24, 2013

वो भूली दास्तां ...

एक रात हुआ कुछ ऐसा -
कि मेरे बिस्तर पर लेटते ही 
और नींद के आने से पहले,
एक नज़्म उतर आई,
मेरी इन बंद आँखों में।
पहले कुछ खटका,
जैसे बिना खटखटाए -
किसी खाली कमरे में,
घुस आया हो एक अजनबी।
अगली कुछ रातों तक,
मिलती रही झलक जिसकी,
इन पलकों के बंद झरोंखों से।
दिन भर आखों में,
लिटा रहता था वो एक ख्याल, 
जिसे एक सयाने शायर ने शायद,
आखों की महकती खुशबू कहा था।
वो - जिसकी शक्ल केवल,
एक तखय्युल1 था-
अब पास आकर बैठ जाती थी,
हर रोज़ नींद के आने से पहले।
वो पूछती मुझसे कई सवाल -
जिन्हें कुछ वक़्त पहले,
मैं जवाब समझकर किसी का ,
कहीं छोड़ आया था पीछे

फिर शुरू हुआ वो लड़कपन,
पहली कुछ मुलाक़ातों का-
कुछ अधूरे से जुमले,
कुछ बेजुबां, बेहर्फ़ ज़स्बात।
मैं लिखता कुछ लाइने,
जिन्हें तुम मिटाकर,
फिर अधूरा कर देती।
और इन मिटते बनते फसलों के बीच,
कुछ-कुछ हम-तुम पूरे होते रहते।
जब कभी दो लफ़्ज़ों के
बीच की खाली जगह से डरकर,
मैं किनारे पर रुक जाता,
तुम हाथ थामकर मेरा,
ले चलती मुझे अपने संग -
उस अफ़क2 तक -
जहाँ लफ्ज़ और जज़्बात मिलते हैं।
फिर वहीं किसी शब्द
के ऊपर खिंची एक लकीर पर
पड़े रहते हम दोनों देर तलक 
जब तक न होती सेहर। 
और साथ साथ बैठे,
बिठाते अपनी दिल की धड़कनों,
पर फिर एक नई ब'हर3

और इस तरह हर रोज़
बाहर, खिड़की से जैसे-जैसे
रात गुज़रती रहती,
और अधूरा चाँद होता पूरा
अंदर, तुम भी मेरे संग वैसे-वैसे 
और जवां होती रहती।
तुम में,अपना नाम रखने से पहले,
मिलवाया था मैंने तुम्हें अपने यार- सपनों से।
वो मेरे दोस्त सपने भी,
उस दिन से मिलने नहीं आये मुझसे
शायद, जागे रहते थे वो भी,
तेरे ही किसी ख्याल में। 

फिर एक रात, नींद आने पर भी,
जब तुम नहीं गयी वापस।
हुआ वही, 
जो होता है रात की बेहोशी में अक्सर।
जिसका ज़िक्र न फिर तुमने कभी किया ,
और न मैंने ही कुछ लिखा उस बारे में कभी । 

अगले दिन सुबह उठकर -
भरकर सियाह रातों को कलम में अपनी,
एक-एक हर्फ़-ओ-लफ्ज़ को सजाया था
नुख्ता, बिंदी, पेश-ओ-ज़बर से -
जैसे दुल्हन सजी हो कोई,
पूरे सोलह श्रृंगार में।
और इतेज़ार करती रही तुम मेरा
सजी डायरी की सेज में पड़ी तनहा-
किसी मेज़ की दराज़ में,
साथ, हाथ में लिए एक गुलाब का फूल,
जो आज-तक वहां, 
डायरी में मायूस सा पड़ा है
और मैं बेवफ़ा शायर की तरह ,
प्यार हमारा मुक्कमल होते ही
फिर निकल पड़ा था किसी दूसरी नज़्म की तलाश में।

आज अचानक, उसी डायरी का सफ़ा पलटते वक़्त
जब ज़बान पर कुछ नमकीन- सा, स्वाद आया है। 
ये भूला पुराना अफसाना, फिर से मुझे याद आया है
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1. imagination/fantasy
2. क्षितिज/horizon
3. लैय/meter